ज़ेह्न में और कोई डर नहीं रहने देता
द्विजेन्द्र ’द्विज’ज़ेह्न में और कोई डर नहीं रहने देता
शोर अन्दर का हमें घर नहीं रहने देता
कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वरना
पेट काँधों पे कोई सर नहीं नहीं रहने देता
आस्माँ भी वो दिखाता है परिन्दों को नए
हाँ, मगर उनपे कोई ‘पर’ नहीं रहने देता
ख़ुश्क़ आँखों में उमड़ आता है बादल बन कर
दर्द एहसास को बंजर नहीं रहने देता
एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर
जो सिकन्दर को सिकन्दर नहीं रहने देता
उनमें इक रेत के दरिया–सा ठहर जाता है
ख़ौफ़ आँखों में समन्दर नहीं रहने देता
हादिसों का ही धुँधलका–सा ‘द्विज’ आँखों में मेरी
ख़ूबसूरत कोई मंज़र नहीं रहने देता.
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