पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4

15-12-2019

पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4

दिनेश कुमार माली (अंक: 146, दिसंबर द्वितीय, 2019 में प्रकाशित)

अब हमारी कार का अगला गंतव्य-स्थल कोणार्क। 

पेट में चूहे कूदने शुरू हो गए थे। शाकाहारी भोजनालय की तलाश थी, कहीं रोटी मिल जाए तो और ज़्यादा अच्छा। पचास-साठ किलोमीटर की दूरी पर एक भोजनालय मिला, मगर खाना ख़त्म हो चुका था। न तो चावल थे, और न ही रोटी। भूख में मेरा पेट बिलबिला रहा था, शायद दूसरे सहयात्रियों का भी, मगर शर्म के मारे कोई किसी को कुछ कह नहीं रहा था। आख़िर सरोजिनी भाभी जी ने ही चुप्पी तोड़ी, यह कहते हुए, "अगर डोसा, इडली होगा, तब भी चलेगा।"

जब बैरे ने हामी भरी तो हम सभी ने इस होटल में मसाला-डोसा खाते ही हुए तृप्ति की साँस ली। मन ही मन सोचता रहा था कि अगर नंदिता मोहंती जी भी साथ में होती तो आज का यह साहित्यिक सफ़र और ज़्यादा सार्थक होता, मगर कामकाजी महिला के लिए नौकरी और घर-परिवार से बढ़कर दुनिया में और कुछ भी नहीं होता है। साहित्य तो एक धुन होती है, सनक होती है, पागलपन होता है, आपके भीतर उठ रही अभिव्यक्ति की ज्वालामुखी फूटने से पहले अपने रास्तों का निर्धारण स्वयं करती है। जब भी किसी साहित्यकार को अपने से बड़े, परिपक्व, चिंतनशील और प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों से मिलने का छोटा-सा अवसर प्राप्त होता है तो उसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

कोणार्क जाने का रास्ता काफ़ी विस्तृत था, दोनों तरफ़ काजू और झाऊँ वन, पोलांग के चमकीले पेड़, बाँस की झाड़ियाँ। शाम होने लगी थी, सूर्य की लालिमा यह दिखा रही थी कि कुछ ही क्षणों में उसका क्षेत्र मद्धिम-मद्धिम रोशनी वाले बल्बों से जगमगाने लगेगा और वह अपने कार्य से मुक्त होकर विश्राम लेने जाएँगे। मुझे भानु जी राव की कविता ‘कोणार्क’ की कुछ पंक्तियाँ याद हो आई। मन ही मन, मैं उन पंक्तियों को दोहराने लगा,

"उसके बाद पार किए हमने
अनेक झाऊं-जंगल
अनेक रेत के टीले
गोप गांव....निमापाड़ा
सोचा हमने बहुत बड़े होंगे
कोणार्क के हाथी और घोड़े।"

कार अपने पूरे वेग में थी। जंगलों के गतिशील दृश्य तुरंत आँखों के सामने से गुज़रने लगे। लोकसभा चुनाव का माहौल था। कहीं बीजू जनता दल पार्टी के समर्थक अपनी साइकिलों पर हरे झंडे पर शंख की तस्वीर वाले चुनाव चिह्न लेकर पार्टी का प्रचार कर रहे थे तो कहीं दूर घरों या दुकानों या रास्तों के तोरनों पर भारतीय जनता पार्टी का कमल चिह्न वाली प्लास्टिक की छोटी-छोटी पताकाएँ लटकी हुई नज़र आ रही थी। 

जगदीश भंडारी जी का राजनीति में रुचि होने के कारण बीजेपी के प्रत्याशी संचित पात्र के फटे हुए फोटों को देखकर कहने लगे, "ओड़िशा में बीजेपी को सीटें नहीं मिलेगी। यहाँ पर नवीन पटनायक का ज़ोर ज़्यादा है। आख़िर, उनका गढ़ जो ठहरा।" 

एक अच्छे राजनैतिक विश्लेषक की भाँति उन्होंने भविष्यवाणी की थी, जो आगे जाकर सही साबित हुई। चुनाव परिणामों में पुरी से बीजेपी की हार हुई और बीजडी की जीत। बीजडी की जीत के पीछे नवीन पटनायक का सभ्रांत चेहरा ही पर्याप्त है।

एक मोड़ पर कार घुमते समय सरोजिनी भाभी ने कार से हाथ बाहर निकालकर दूर एक नदी की ओर इशारा करते हुए कहा, "वो सामने देखो, यह है चंद्रभागा नदी, जहाँ सूर्य की प्रथम किरण गिरती है।"

जिज्ञासावश मैंने बात छेड़ते हुए उनसे पूछा, "भाभीजी, इसकी भी कोई लोक-कथा है क्या?"

"है न! राधानाथ राय ने इसके ऊपर एक काव्य लिखा है- ‘चंद्रभागा‘ काव्य। मैं अपने कॉलेज में पढ़ाती थी। कभी इस इलाके में सुमन्यु ऋषि तपस्या किया करते थे, उनकी एक सुंदर लड़की की अपूर्व सुंदरता को देखकर सूर्य का मन डोल गया। यह कथानक यूरोपियन मिथक अपोलो और डाफने से लिया गया है। जगन्नाथ के पुष्पाभिषेक में बहुत सारे देवी-देवता स्वर्ग से आमंत्रित किए गए थे। संबलेश्वरी से समलाई, चिलिका लेक से कालिजाई इस तरह कई देवी-देवता पधारे थे। सूरज भी था और कामदेव थी। दोनों में कुछ अनबन हो गई, इसलिए मज़ा चखाने के लिए कामदेव ने सूरज पर काम-वासना का तीर चला दिया और उसका विपरीत तीर चंद्रावती पर। सूरज से बचने के लिए चंद्रावती ने नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। तब से इस नदी का नाम पड़ा- ‘चंद्रभागा’। जब सुमन्यु ऋषि को ध्यान में अपनी बेटी की आत्महत्या का कारण पता चला तो उसने सूर्य को अभिशाप दे दिया कि इस क्षेत्र में कभी भी तेरा मंदिर नहीं बनेगा और नहीं तेरी यहाँ पूजा होगी। उस अभिशाप से कोणार्क में न तो सूर्य मंदिर बन पाया और न ही वहाँ उसकी पूजा होती है।"

"क्या आप चंद्रभागा नदी देखना चाहेंगे?" बेहेरा साहब ने विमला जी की तरफ़ देखते हुए पूछा।

"नहीं, काफ़ी समय हो चुका है। कोणार्क भी देखना है और भुवनेश्वर भी जल्दी ही जाना है, शादी-ब्याह की रस्में अदा करनी है।" जगदीश जी ने कार ड्राइवर को इशारा करते हुए आगे बढ़ने के लिए कहा।

 भाभी जी की कहानी अत्यंत दिलचस्प थी। चंद्रभागा नाम भले ही रहा हो, मगर थी तो अभागिन ही, तभी तो अहिल्या को दूषित करने वाले चंद्रमा की तरह उसके पीछे सूरज लग गया। भारत में देवी-देवता भी बड़े ख़तरनाक होते हैं, अविश्वसनीय होते हैं, कब किसे कौन पसंद आ जाए, कह नहीं सकते और वे अपना रूप बदलकर कब किसका शीलहरण कर लें। अगर यह असत्य है तो राधानाथ राय जैसे कल्पनाशील कवि अपनी फ़ैंटेसियों में देवी-देवता, ग्रह-उपग्रह आदि को भी इस तरह ले आते हैं, मानों घटना मिथकीय, लोक-कथा न होकर सत्य लगने लगती है। शायद कोणार्क के सूर्य मंदिर के भग्न होने का राज़ खोजने के लिए उन्होंने अपने काव्य की अंतर्वस्तु में चंद्रभागा नदी का मानवीकरण तो नहीं कर लिया?

चंद्रभागा से थोड़ा-सा आगे जाने पर एक राजकीय विश्रामालय आता है और कुछ सरकारी कार्यालय, उसके थोड़ा-सा आगे यूनेस्को द्वारा मान्य विश्व धरोहर कोणार्क मंदिर। आज का कोणार्क मंदिर पुराने कोणार्क मंदिर से पूरी तरह अलग है, अलग बस स्टेशन है, टैक्सी स्टैंड है, लाइट-साउंड शो की व्यवस्था है, प्रेक्षागृह है-जहाँ ऑडियो-विजुअल फिल्म दिखाई जाती है और कोणार्क का अर्काइव-म्यूज़ियम भी। अँधेरा हो चुका था, अतः कोणार्क पर ऐतिहासिक फ़िल्म देखना तो दूर की बात, कोणार्क का परिभ्रमण करना भी मुश्किल था। लाइट-साउंड शो देखा जा सकता था, मगर समय के अभाव में वह भी नहीं हो सका, फिर भी भाभी जी, दीदी और जगदीश जी ने कोणार्क के परिसर में जाने का निर्णय किया, मैं और बेहेरा साहब बाहर में इंतज़ार करने लगे। बहुत जल्दी ही एकाध घंटे में वे सभी भी कार के पास आ गए और अपने-अपने निर्धारित जगह पर बैठ गए।

कोणार्क देखने जाएँ और कोणार्क की कहानी और इतिहास पर अगर चर्चा न हो तो फिर इस साहित्यिक-यात्रा का क्या अर्थ? बेहेरा साहब की लोक-कथाओं पर अच्छी पकड़ थी और ख़ासकर ओड़िया सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाली। एक शिक्षक की शैली में उन्होंने कोणार्क के बारे में बताना शुरू किया, "अभी आप कोणार्क देखकर आए हैं। कोणार्क का अर्थ जानते है। कोण-अर्क, अर्क मतलब सूर्य तो कोणार्क का अर्थ हुआ सूर्य का कोण, इसी कोण पर सूरज की पहली किरण पूर्वाशा में गिरती है। जयशंकर प्रसाद जी ने अपनी कविता में लिखा है- 

हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार 
उषा ने हंस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार 

अगर जयशंकर प्रसाद जी कोणार्क में आँगन में आते तो उनके मुख से कविता की ये पंक्तियाँ ऐसे बदल जाती-

कोणार्क के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार

“कोणार्क भी तो स्थापत्य-कला का हिमालय ही है," विमला जी ने सहमति जताई।

फिर से बेहेरा साहब ने कहना शुरू किया-

"एक राजा था, लांगुला नरसिंह देव। शायद 1200-1300 की बात होगी। वह सूर्य मंदिर बनाना चाहते थे, क्योंकि सूर्यदेव की कृपा से उन्हें पुत्र प्राप्ति हुई थी। जहाँ यह सूर्य मंदिर बना है, वहाँ कभी बहुत बड़ा समुद्र हुआ करता था। उन्होंने मंदिर निर्माण का कार्य अपने प्रधानमंत्री सिबाई सांतरा को सौंपा। उसने पहले-पहले समुद्र के बीचों-बीच पत्थर डलवाना शुरू किए, मगर पानी के बहाव में पत्थर इधर-उधर हो जाते थे और मंदिर बनाने का कठोर धरातल उन्हें नहीं मिल पा रहा था। दुखी मन से जब वह घर की ओर लौट रहे थे, काफ़ी देर हो चुकी थी, जंगल का रास्ता था तो उसने एक बुढ़िया के घर में शरण ली। उस बुढ़िया ने उन्हें संभ्रात घर का अतिथि समझकर गरम-गरम जाऊं (एक प्रकार की खीर) बनाकर परोसी। भूख से बेहाल होने के कारण सिबाई सांतरा ने थाली के बीचों-बीच हाथ डालकर जाऊं खाना शुरू किया तो उसमें हाथ जल गए। उफ़! की आवाज़ सुनकर बुढ़िया ने उसकी तरफ़ देखा और कहा-तुम भी तो सिबाई सांतरा की तरह काम कर रहे हो तो हाथ नहीं जलेगा तो और क्या होगा? बीचों-बीच हाथ न डालकर अगर किनारे से तुम खीर खाना शुरू करते तो तुम्हारे ये नरम कोमल हाथ नहीं जलते। बुढ़िया सिबाई सांतरा को नहीं जानती थी, मगर उसे एक बहुत बड़ा सबक मिल गया और उसने समुद्र को किनार से पाटने का आदेश दिया, अपने कामगारों को। धीरे-धीरे उसे मंदिर बनाने की यह ज़मीन मिल गई।" 

अभी बेहेरा साहब की कहानी पूरी भी नहीं हुई थी कि विमला जी ने उनकी बात को काटते हुए कहा, "ऐसी एक लोककथा तो राजस्थानी लोक-साहित्य में भी आती है।" 

यह कहकर वह चुप हो गई। मैंने बात को आगे बढ़ाया, "कौन-सी लोक-कथा? सुनाइए न।"

सरोजिनी भाभी जी की ओर देखते हुए उन्होंने कहानी सुनाना शुरू किया मानो सत्य नारायण पूजा में अपने सहेलियों और सगे-संबंधियों को सुना रही हो।

"मेवाड़ के एक राजा थे मोकल। उनके परिवार में आपसी कलह चल रहा था। पड़ोसी राजा चूड़ा ने उनके वंशज रणमल को मौत के घाट उतार दिया, यह देखकर राजकुमार जोधा, (जिन्होंने राजस्थान में जोधपुर की स्थापना की थी) मारवाड़ प्रांत में सैन्य-बल को संगठित कर चूड़ा के ख़िलाफ़ युद्ध की तैयारी करने लगे, मगर हर युद्ध में उन्हें मुँह की खानी पड़ रही थी। रात के समय जोधा ने किसी बुढ़िया की झोपड़ी में शरण ली और बुढ़िया ने उन्हें खीर परोसी। चेहरे के हाव-भाव और उदासी देखकर बुढ़िया से रहा नहीं गया और पूछा, “बेटा! किस बात की चिंता कर रहे हो। पहले खाना खा लो, फिर थोड़ा विश्राम कर लेना।"

बुढ़िया को उस राजकुमार के बारे में बिल्कुल पता नहीं था। भूखे राजकुमार ने थाली में परोसी गई गरम खीर को बीच में से खाना शुरू किया तो उसके हाथ जल गए और कहने लगा, ‘उफ्फ! बहुत गरम है खीर।’ बुढ़िया ने यह अपनी आँखों से देख लिया था इसलिए कहने लगी, ‘बेटा, तुम तो राव जोधा की तरह कर रहे हो। वह भी अपने प्रांत के किनारे वाले गाँवों को न जीतकर सीधा बीचों-बीच बसी हुई बस्तियों पर आक्रमण करता है, इसलिए वह चारों तरफ़ घिर जाता है और उसे मुँह की खानी पड़ती है। तुम भी तो ऐसा ही कर रहे हो, किनारे-किनारे से क्यों नहीं खाते!’

राव जोधा और सिबाई सांतरा की लोक-कथाओं अद्भुत सामंजस्य है। एक राजस्थान की लोक-कथा तो दूसरी ओडिशा की। 

कोणार्क की कहानी का सूत्र मध्य में कहीं टूट न जाए- सोचकर फिर से इस सूत्र को जोड़ते हुए जगदीश जी ने कहा, "उसके बाद क्या हुआ? बेहेरा साहब!"

“जब उसे कठोर धरातल मिल गया तो बारह सौ कारीगरों में जिसका मुखिया विशु महाराणा ने सोलह साल के भीतर यह मंदिर तैयार किया- 224 फुट ऊँचा। यह मंदिर इस प्रकार का है कि मानों सात घोड़े बारह जोड़े पहियों वाले रथ में सूर्य भगवान को आरूढ़ कर आकाश में उड़ने की तैयारी कर रहे हों। ये सात घोड़े सात दिनों का प्रतीक है, और बारह जोड़े पहिए बारह महीनों का। सात घोड़ों का नाम संस्कृत साहित्य में है- गायत्री, वृहति, उष्णीह, जगति, त्रिस्तूभ, अनुष्टुप और पंक्ति है। पूर्व दिशा में यह रथ उदय होकर धीरे-धीरे अंतरिक्ष में परिक्रमा करने लगेगा, अँधेरे को भगाने में दो देवियाँ इस कार्य में मदद करेगी, उषा और प्रत्युषा।"

"इसका अर्थ यह हुआ कि स्थापत्य-कला, ओड़िया भाषा में भास्कर्य कह लो, में भी सिंबोलिज़्म यानी प्रतीकों का स्थान है।" मैंने अपनी बात रखी। 

"हाँ, बिल्कुल है। कला और विज्ञान तो आपस में एक-दूसरे से पूरी तरह जुड़े हुए हैं। क्या प्रतीक भाषा में ही होंगे, दूसरी जगह नहीं? ख़ैर, मंदिर तो बन गया, मगर कलश-स्थापना का काम उनकी टीम नहीं कर पाई। उसी दौरान विशु महाराणा को मिलने के लिए उनका, बारह वर्षीय पुत्र धम्मपद मिलने आया और सभी कारीगरों को हताश-निराश-उदास अवस्था में देखकर दुखी स्वर में कहने लगा- ‘आप सभी इतने दुखी क्यों हो?’ जब उन्होंने अपनी समस्या सामने रखी तो धम्म पद ने हँसते हुए कहा- ‘यह काम तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है।’ और अपने चुंबक और कलश ले जाकर सही जगह पर स्थापित कर लिया। अब बात ठहरी अस्मिता की, जब बारह सौ कारीगर जिस काम को नहीं कर सके, एक छोटे से बारह वर्षीय बालक ने कर दिया। तब राजा को क्या जबाव दिया जाएगा? राजा बच्चे को पुरस्कृत करेगा और बारह सौ कारीगरों के सिर धड़ से अलग। इस अवस्था में क्या किया जा सकता है? लड़के को या तो दूर भेज दिया जाए या फिर...? जब धम्मपद ने उनकी आशंका भरी बातें सुनी तो स्वयं मंदिर के चूल पर चढ़कर नीचे समुद्र में कूदकर आत्मा-हत्या कर ली। मंदिर और आत्महत्या? यह भी तो पाप है। उसके बाद वह मंदिर अपने आप गिरना शुरू हो गया और आज जो मंदिर आप देखकर आए हैं, वह उसी का भग्नावशेष हैं। यह है कोणार्क की कहानी, जो मुझे आती है। अगर और कोई कहानी होगी तो मुझे मालूम नहीं।"

धम्मपद की आत्महत्या से कार के भीतर बैठे सभी साहित्यकारों की मन में करुणा और दया के भाव स्पष्ट झलकने लगे। माहौल कुछ ग़मगीन-सा लग रहा था। इतनी बड़ी जीती-जागती ऐतिहासिक धरोहर, लाखों-करोड़ों का ख़र्च, फिर भी प्रोजेक्ट असफल। केवल एक आत्महत्या के कारण, क्या तत्कालीन राजाओं के मन में प्रेम-भावना बिल्कुल भी नहीं होती थी। बारह सौ मिस्त्रियों का शोषण भी किया, उनकी जवानी छीन ली, मंदिर के निर्माण में, और मिला क्या? नरसिंह देव का तो नाम रह गया अभी तक, मगर नींव की ईंट बने कारीगर? कलश स्थापित नहीं होने के बाद भी राजा ने अपने आपको कंगूरे के रूप में स्थापित कर ही लिया। ये सारे विचार मेरे मन के किसी कोने में विषैले साँप की तरह फुफकार रहे थे। परिवेश को सामान्य बनाने के लिए पहले-पहल तो भाभी जी ने दीदी से घर-गृहस्थी की बातें करना शुरू कर दिया। 

फिर कुछ समय बाद कोणार्क की बची-खुची पौराणिक गाथा की तरफ़ वह लौट आई- "कृष्ण के पुत्र शांब को दुर्वासा मुनि का अभिशाप लगा था इसलिए उन्हें कोढ़ हो गया था। उन्होंने ऋषियों के वचनानुसार इस अर्क क्षेत्र में आकर सूर्य की पूजा-तपस्या की और रोग मुक्त हो गए। द्वापर में यह स्थान धार्मिक स्थल के रूप में मशहूर हुआ है। इस अर्क क्षेत्र के पुराणों में कई नाम है जैसे- कोणादित्य, सूर्यक्षेत्र, मित्रवन, मैत्रेयवन, रवि क्षेत्र आदि। यही ही नहीं कोई-कोई तो कहते हैं कि राजा नरसिंह देव का शिशुपालगढ़ की राजकुमारी पद्मा से प्रेम संबंध था, मगर राजा का पंजाब राजकुमारी से विवाह होने के बाद पद्मावती विरह-ज्वाला सह न सकी और अपनी देह को काल के हाथों में सौंप दिया। राजा ने ढूँढ़ते हुए उसके शव को वहाँ पाया था। उन्होंने अपनी प्रेमिका की याद में यहाँ कोणार्क मंदिर बनाया। इसलिए इस क्षेत्र को ‘पद्म क्षेत्र‘ भी कहते हैं।"

जितने मुँह उतनी बातें। कोणार्क मंदिर के बारे में काफ़ी प्रकाश डाला जा चुका था, मगर फिर भी किसी ठोस ऐतिहासिक सबूतों की जानकारी नहीं मिल पाई। इतना भव्य मंदिर अपने पीछे शून्य इतिहास छोड़ गया। इतिहास-शून्य कोणार्क मंदिर? ऐसे कैसे हो सकता है? घर आकर मैंने डॉ. मायाधर मानसिंह की पुस्तक ‘The Saga of land of Jagannath’ का खंगालना शुरू किया, कुछ तो ऐतिहासिक तथ्य मिलें, जिस पर कम से कम विश्वास किया जा सके।  

मायाधर मानसिंह कहते हैं कि चंद्रभागा नदी पर बहुत बड़ी बंदरगाह थी, वहाँ से श्रीलंका और अन्य दक्षिण एशियाई देशों के व्यापार होता था। राजा नरसिंह देव के समय में भी यह बंदरगाह चालू रही होगी, अन्यथा इतनी वीरानी जगह पर कोई राजा क्यों अपना और प्रजा का विपुल धन खर्च करेगा? इस मंदिर के पहले भाग ‘जगमोहन’ में जो भित्तिचित्र है, उसमें एक राजा हाथी पर बैठा हुआ है और कुछ संभ्रात वर्ग के लोग, अच्छे परिधान पहने हुए, उनका तालियों से अभिनंदन कर रहे हैं। इस भित्तिचित्र में लंबी गर्दन वाला जिराफ़ है, वह पूर्व अफ़्रीका का जंतु है। अगर वह समुद्री रास्ते से कोणार्क नहीं लाया गया होता तो उस आकृति में वह कहाँ से समाविष्ट हो जाती? इसका मतलब सुदूर देशों से कोणार्क के वाणिज्यिक संबंध बने हुए थे इस बंदरगाह के माध्यम से। यह भी हो सकता है राजा नरसिंह के पूर्वजों ने पुरी (विष्णु क्षेत्र), जाजपुर (शक्ति क्षेत्र) और भुवनेश्वर (शिव क्षेत्र) में मंदिर बनाकर अपने आपको कालजयी बना दिया था तो हो सकता है, उनके मन में भी यह ख़्याल आया होगा कि पृथक क्षेत्र (अर्क क्षेत्र) में क़तार से हटकर एक नया मंदिर बनवाकर अपने आप को अमर बना दूँ। यह भी हो सकता है कि राजा ने इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवाने के उद्देश्य से इसे बनवाया हो, क्योंकि 13 वीं शताब्दी में भारत के उत्तर, दक्षिण और बंगाल में मुसलमानों के लगातार आक्रमण हो रहे थे केवल यही एक ऐसा हिंदू राजा था, जिसने मुसलमानों को अर्क क्षेत्र में भटकने नहीं दिया। जितनी भी बार युद्ध हुए, उन्हें परास्त किया। अतः विजय की ख़ुशी में, विजय-स्मारक के रूप में राजा ने कोणार्क की स्थापना की हो, क्योंकि इतिहास में कहीं पर भी यह नज़र नहीं आता है कि वह संत-साधू प्रवृत्ति का राजा था। वह भौतिकवादी था और एक महान योद्धा भी। कोणार्क की दीवारों पर बने हाथी, घोड़े, सेना, रथ आदि तत्कालीन पृष्ठभूमि के प्रतीक हैं क्योंकि ओड़िशा का कोई भी ऐसा मंदिर नहीं है, जिसमें सैन्य-बल को भित्ति चित्रों में आँका है। आज भी कोणार्क, जो कला-प्रेमियों को पसंद आता है, उसका कारण यह नहीं है कि उन्हें सूर्य देवता आकर्षित कर रहे हैं या राजा नरसिंह पर उन्हें दया आ रही है। वे आते हैं उसे देखने, उस पर अंकित जीवन के आंनद की दिव्य-भाषा को पढ़ने के लिए। 

अगर सही-सही कहा जाए तो कोणार्क ‘थ्री डब्ल्यू‘ का केन्द्र है। थ्री डब्ल्यू अर्थात् वार, वर्शिप एंड वूमेन। कोणार्क के पहिए आज दुनिया भर में आकर्षण के केन्द्र हैं न केवल सूर्यदेवता के रथ के होने के कारण, बल्कि भवसागर के भी, जीवन के भी पहिए है। कोणार्क में कुछ भी शांत नहीं है, कुछ भी गतिविहीन नहीं है। कुछ भी अनुर्वर नहीं है। पत्थर गीत गाते है, प्रतिध्वनियाँ निकलती है, मृदंग और ढोल की थापों पर। पत्थर दौड़ते है, वेगवान घोड़ों की तरह, सूरज के रथ को तेज़ी से दौड़ाते हुए। यहाँ पत्थरों पर फूल खिलते हैं, सहस्र हाथों में चमक लिए।

इतिहास जो कुछ भी कहें, पौराणिक गाथाएँ जो कुछ भी कहें, लेकिन एक अभियंता होने के कारण मेरी निगाहों में कोणार्क का कुछ और ही महत्व है। 13वीं शताब्दी में इतने बड़े-बड़े पत्थर और आयरन बीम सौ फीट से ज़्यादा ऊँचाई पर कैसे ले जाया गया होगा, उस समय न तो कोई स्टीम इंजिन था और न ही कोई सिविल इंजिनियरिंग के आधुनिक उपकरण जैसे डैरिक या वायर रोप या पुली ब्लॉक सिस्टम। यह सोच से परे है कि बड़े-बड़े पत्थरों को कैसे उतनी ऊँचाई पर फ़िट किया होगा? आस-पास पत्थरों की खदानें भी रही होंगी, वहाँ से इतने विशाल पत्थरों को किसी पर लादकर लाया गया होगा, हाथियों या किसी और यंत्र पर? ऐसी अवस्था में कोणार्क को विश्व-धरोहर के रूप में शामिल किया जाना सारे विश्व के लिए गौरव का विषय है। कितने कारीगर, राजमिस्त्री राजा की बर्बरता का शिकार हुए होंगे, कितने मंदिर बनाते समय ऊँचाई से गिरकर मौत के शिकार हुए होंगे और कितने धम्मपदों ने चंद्रभागा में कूदकर आत्म-विजर्सन किया होगा? 

सारे दृश्य एक-एक कर आपकी आँखों से गुज़रने लगे< तो अवश्य आँखों के दोनों में आँसुओं की स्फिटक बूँदे साफ़ दिखाई देने लगेंगी ओर आपके दोनों हाथ अपने आप जुड़कर उन अज्ञात कलाकारों की आत्मा को शांति-सद्गति देने के लिए उतावले हो उठेंगे। अगर हम हमारी इस विश्व-धरोहर को सही सम्मान नहीं देते है या उनकी कला की क़द्र नहीं करते हैं तो यह अपने आप में डूबकर मर जाने जैसी घटना होगी। 

अंत में, मैं भानु जी राव जी की कविता ‘कोणार्क’ में यह उद्धृत करना चाहूँगा-
हम शहरी लोग
निकले देखने को कोणार्क!
गाड़ी से उड़ाते लाल धूल के गुबार
मुँह में चुरूट, कंधे पर थैली
बैठे चिपकाकर कुर्ते और चोली।


हम भद्र जन
पहने हुए सोने के बटन
साथ में ताश, ग्रामोफोन
और पास बोतल में रम


शहर की सीमा से दूर अँधेरे में
एक ग्राम
पता नहीं उसका नाम
वहाँ पर ठहरे हम
नारियल पानी पीने की हुई इच्छा भारी
सामने दिखाई पड़ी एक किशोरी?
देख रही शांत-भाव से वह गोरी
गाय की तरह भोली


चुपचाप बैठा मैं
ध्यान-मग्न
तभी दिखाया संगिनी ने
बाँस की झाड़ियों के सामने कबूतर
कहीं धान के खेत
कहीं झाऊँ और बादाम के वन
किसी के बरामदे में लटकती लौकी
ये सब देखा हमने
सूरज रहते- रहते।

उसके बाद हो गई रात
चमकने लगे पोलांग पेड़ के पात
ऊपर चाँद की चाँदनी
नीचे विस्तीर्ण घास की चटाइयाँ
जिस पर बादलों के जादू से
कई छोटी कई बड़ी परछाइयाँ।

ये सब देखा हमने
धूल और चुरूट के धुँए में
“क्या तुमने कोणार्क देखा है ?"
लाल होठों वाली लड़की ने पूछा
“अंगड़ाई लेती कन्या की छाती
वास्तव में पत्थर से गठित?"
दाँत दबाकर हँसा वह
अपनी बहुत क़ीमती हँसी

उसके बाद पार किये हमने
अनेक झाऊँ-जंगल
अनेक रेत के टीले
गोप गाँव ...निमापाड़ा
सोचा हमने बहुत बड़े होंगे कोणार्क के हाथी
और घोड़े।


यहाँ पर रोकी गाड़ी
रेत में घसीटकर पाँव
पहुँचे हम सभी दूर वहाँ
सुनाई देता समुद्र-नाद जहाँ।


मुर्गी की हड्डी लेकर कुत्ता
चबा रहा चुपचाप
अंडे के खोल और मछली के काँटे
चारों तरफ़ रेत ही रेत
यहाँ पर है डाक-बंगला
झालर-पंखा, आराम-चौकी
निश्चित नींद का मजा
कुछ नहीं केवल शौक़ीन मिजाज।

सोते- सोते सोच रहा था मैं
भूल जाऊँगा आगे और पीछे
आँखें तरेरते, भृकुटी सिकोड़ते
थोड़ा हँसते हुए पूछा,
उस लड़की ने मुझसे
“क्या तुमने कोणार्क देखा है?"

ज्ञानपीठ से पुरस्कृत प्रतिभा राय ने अपने ओड़िया ‘शिलापद्म’ (जिसका हिन्दी अनुवाद डॉ. शंकर लाल पुरोहित ने ‘कोणार्क’ नाम से लिया है।) की भूमिका में भी भानू जी राव की कविता की तरह अपनी मनोव्यथा प्रस्तुत की है-

"परंतु आज जो कोणार्क देखने आते है, उनमें धर्म भावना या कलानुराग से बढ़कर आमोद-प्रमोद, मनोरंजन या मौज-मस्ती की वासना अधिक मुखर होती है। वे आज कोणार्क को तीर्थ या कला के दर्शन का पीठ नहीं मानते, बस आमोद-प्रमोद की जगह मानते हैं- पिकनिक स्पॉट के स्तर पर। कोणार्क मंदिर जीवन चक्र की एक चित्ताकर्षक चित्रशाला होते हुए भी यहाँ खुदी सृष्टिचक्र की प्रतीक शृंगार रस संबलित मिथुन मूर्तियाँ ही ज़्यादातर लोगों के आकर्षण का प्रधान केन्द्र रही है। कुछ विद्वान तो कहते हैं कि मिथुन मूर्तियाँ कोणार्क कला का कलंक है। कुछ इन दृश्यों के प्रति मन में वितृष्णा भाव रखते है और कुछ तो मंदिर निर्माता, तत्कालीन सामाजिक जीवन और कलिंग शिल्पियों की विचारधारा अतिनिम्न कहने से भी नहीं चूकते।"

मगर मुझे ओशो रजनीश का एक कथन याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि कोणार्क मंदिर की परिधि में बनी कामुक मूर्तियाँ यह दर्शाती है कि मनुष्य पहले अपनी काम वासना से ऊपर उठे, तभी तो उसे ईश्वर के सच्चे दर्शन हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। 

इसी वार्तालाप के साथ मैं भुवनेश्वर रेलवे स्टेशन उतर गया। वहाँ विमला दीदी और सरोजिनी भाभी ने स्नेहमयी निगाहों से मुझे विदा किया और आर्शीवाद भी दिया। मेरी मंज़िल शुरू हो गई, भुवनेश्वर से तालचेर की ओर, स्मृतियों से भरे खचाखच भानुमति का पिटारा लिए। सोच रहा था, मस्तिष्क बिंदु के रूप में इकट्ठी होगी और समय आने पर साकार रूप ले लेगी। सावन के महीने में पुरी और कोणार्क मेरे हृदय में धड़कने लगा और भीतरी दबाव देखकर मैं उन्हें शब्दों की माला में पिरोता चला गया।

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