जाने कितने ही उजालों का दहन होता है
द्विजेन्द्र ’द्विज’जाने कितने ही उजालों का दहन होता है
लोग कहते हैं यहाँ रोज़ हवन होता है
मंज़िलें उनको ही मिलती है कहाँ दुनिया में
रात-दिन सर पे बँधा जिनके क़फ़न होता है
जब धुआँ साँस की चौखट पे ठहर जाता है
तब हवाओं को बुलाने का जतन होता है
खोटे सिक्के कि कोई मोल नहीं था जिनका
आज के दौर में उनका भी चलन होता है
बस यही ख़्वाब फ़क़त जुर्म रहा है अपना
ऐसी धरती कि जहाँ अपना गगन होता है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- ग़ज़ल
-
- अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
- आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक
- कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा में
- जाने कितने ही उजालों का दहन होता है
- जो पल कर आस्तीनों में हमारी हमको डसते हैं
- देख, ऐसे सवाल रहने दे
- न वापसी है जहाँ से वहाँ हैं सब के सब
- नये साल में
- पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए
- यह उजाला तो नहीं ‘तम’ को मिटाने वाला
- ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी
- सामने काली अँधेरी रात गुर्राती रही
- हुज़ूर, आप तो जा पहुँचे आसमानों में
- ज़ेह्न में और कोई डर नहीं रहने देता
- विडियो
-
- ऑडियो
-