भार चिन्ता का

03-05-2012

एक थीं मिसिज़ पाली। सभी उनको पाली-पाली ही कहते ये, बहुत कम लोग जानते थे उनका पहला नाम भुवन था। चूँकि उनके पति उन्हें प्यार से पालने वाली समझने लगे तो नाम पड़ गया पाली। दरअसल कोई ये पाली उनका सर्वनाम नहीं था, बस पति ने प्यार से पाली कहा,तो चार मित्रों ने पाली ही कहना शुरु कर दिया। बार-बार इस गलती को दोहराते रहने से उनका नाम ही जो पड़ गया तो किसी ने (अपने समूह में) उनका असली नाम व पति का ‘सरनेम’ ककड़ कहना ही नहीं चाहा। चलन भी यही है, नाम बिगड़ जाते हैं, तो बिगड़ जाते हैं।

रहन सहन उनका सब तरह से अलग ही था। उनकी खास बात- ये होता कि वो कहीं भी जातीं तो वे जिस कोने में पलाथी मार कर बैठतीं वो विशेष हो जाता, सभी बारी-बारी से उनके पास घेरा सा बना कर बैठतीं, जो किसी कारण ऐसा ना कर पाती, तो उनके कान उधर ही रहते कि मिसिज़ पाली की बातों का विषय क्या है या क्या चर्चा चल पड़ी है। समय समय पर शहर व देश-विदेश घूमने के कारण उनके पास बाते भी खूब होतीं व समाचार भी। इसके अलावा चूँकि उम्र भी अच्छी-ख़ासी गुजर गई थी तो, सलाह-मशविरे भीलगे हाथ वे दे डालतीं। कभी-कभी उनसे उम्र में कम स्त्रियाँ बच्चों की समस्याएँ लेकर बातें करने लगतीं और उस बारे में भी मिसिज़ पाली का जवाब अलग ही दृष्टिकोण वाला होता। जैसे एक नीरू थी, बोली - “मेरा पन्द्रह साल का लड़का है,कमरा बन्द करके रहता है। कई बार कहा कि दरवाज़ा खुला रखो पर मानता ही नहीं।” तो मिसिज़ पाली मुस्कुरा कर कहने लगीं - “दरवाज़ा ही तो बन्द करता है, कुछ बातें करनी होती होंगी, बड़े होते बच्चों की बातचीत की एक नई शैली विकसित हो रही होती है, और वे आलोचना से डरते हैं,झिझक होती है, इसी से थोड़ा पर्दादारी रखना चाहते हैं। राई का पहाड़ मत बनाओ नीरू।”

हाँ तो हम कह रहे थे कि 55 साल के होते न होते मिसिज़ पाली का वज़न कम हो गया। डॉ. ने कहा हर दो माह पर परीक्षण करेंगे, कारण खोजेंगे, क्यों भार कम हो रहा है। पति भी चिन्तातुर हो गये। और चिन्ता के कारण ककड़ साहब का वज़न बढ़ गया। मिसिज़ पाली को जब डॉ. ने कहा “वज़न कम हो रहा है”, वे प्रसन्न हो गईं। क्योंकि उनके विचार से ऐसा होना अच्छा था। कारण वे स्वयं जानती थीं और कारण था कि उन्हें लगने लगा था, शरीर में सब चीजों का एक निश्चित भार होता है - जल इतना, रक्त इतना, हड्डियाँ इतनी, वायु इतनी आदि और उन्होंने अपने विचार से ये जाना कि सबसे ज़्यादा भार है “चिन्ता” का। जब तक भारी रहेंगे, कुछ कर नहीं सकेंगे, हल्के होंगे तो गति तेज रहेगी व धरातल से ऊपर उठ सकेंगे। वे कभी कल्पना भी करतीं कि यदि पक्षी की भाँति हल्के हो गये तो ऊपर उड़ सकेंगे। जिसे देखो अपने परमात्मा की बात हो तो, हर कोई हाथ ऊपर उठा कर ही माँगता है। उन्हें ऐसा लगता कि ईश्वर ऊपर है, ऊपर जाने के लिए हल्का होना एक अनिवार्य स्थिति है। और उन्होंने देह का भार कम करने का पक्का मन बना लिया। अब वे धीरे-धीरे चिन्ता रहित होने लगीं। एक बात और उनके विचित्र मन ने जान ली कि किताबें तो कितनी भारी होती हैं, लेकिन यदि उनको पढ़ लो तो वे दिमाग में चली जाती हैं,चली तो जाती हैं परन्तु शरीर का भार उतना ही बना रहता है, ये चमत्कार ा लगता। उनका गणित इतना अच्छा नहीं था कि जोड़-घटाना अच्छे से कर पातीं, क्योंकि पढ़ने की उम्र में गणित उनका सबसे कमज़ोर विषय था। परन्तु उनमें विश्वास करने की क्षमता सूर्य के सत्य के समान थी। बस उन्हें ये विश्वास होने लगा कि यदि परमात्मा से मिलना है तो इस शरीर को हल्का करना पड़ेगा और इतना पवित्र कि जैसे गंगा जल। और पूछो तो कोई बताए गंगा जल भी तो अन्य जल की भांति है, तो उसके कौन से अंश में पवित्रता छुपी हुई है- बताओ।

अब दिनचर्या तो मिसिज़ पाली की पहले के जैसी ही रहती परन्तु वे जाने कौन सी शक्ति अपने भीतर जलाए बैठी थीं कि कोई भी स्थिति-परिस्थिति आए चिन्ता को भीतर न आने देतीं। कितनी ही बार ऐसा हुआ कि पूरा परिवार दु:खी सुखी होता रहा परन्तु वे हर बात के पीछे मन में कहतीं “तो”। अर्थात ये हो गया तो। वो हो गया तो। क्या बड़ी बात हो गई, ऐसा तो होना ही था। यही तो जीवन चक्र की गति है। ऊपर से कुछ आरोप यदि आते तो मन में कहतीं “इदं: न:मम” (ये मेरा नहीं) और जैसे धीरे धीरे सब भस्म सा हो जाता। कोई पूछ ले कि आपको गुस्सा नहीं आया जब ऐसा हुआ, वे मुस्कुरा कर कहतीं - “जानती हो, गुस्सा करने से चेहरे की कोमल त्वचा सूख जाती है और दरारे पड़ जाती हैं व त्वचा छुहारे के जैसा जल्दी ही होने लगती है।”

एक बार उनके घर दूर के बहन (दूर की अर्थात माँ के मामा के बेटे की बेटी) मिलने आईं। बड़ी हाल परेशान थी। आते ही बोली - “पाली जरा बढ़िया सी मसाले वाली चाय बना के पिलाओ और साथ में कुछ गरमागरम नमकीन भी खिलाओ, दिमाग परेशानी के मारे फटे जा रहा है।” पाली ने हाथ पकड़ कर पास बैठाया और कहा- “चाय तो बनाती हूँ जीजी, पर कुछ कहो तो क्यों इतनी परेशान हो? क्यों दर्द को सर तक जाने दिया?” जीजी ने आँखें दिखाते हुए कहा, “तुम्हें तो सब पता है, अलका की शादी अभी तक नहीं हुई, ती की थी तब से कह रही है वो कि उसके साथ काम कर रहे एक लड़के से बात बन जाएगी। चार सार होने को आए उस लड़के ने तो शादी कर ली, कल कार्ड आ गया और अलका फिर अकेली रह गई। बताओ हम क्या करें, अलका को सम्हालें या कोई मुझे सम्हाले?”

मिसिज़ पाली चाय का पानी रख आई और बोली, “तो जीजी, इसमें चिन्ता कैसे जब संजोग होगा अलका ब्याही जाएगी। हम और आप कर ही क्या सकते हैं। जब बच्चों को स्वतन्त्रता दी थी, तब तो खुश थे, आज़ाद ख्यालों पर मान करके फूले हुए थे फिर अब ये रोना कैसा, ये असहनीय सर दर्द क्या है? चलने दो जैसे समाज चल रहा है। नहीं होगा ब्याह, जीजी तुम तो अब अपने बारे में सोचो, हमारा क्या होगा, बच्चों को छोड़ो, वो बच्चे नहीं रहे, अपना सुधारो। हम कर्त्ता तो है नहीं, कठपुतलियाँ हैं। अभिनेता हैं निर्देशक तो है नहीं, कर ही क्या सकते हैं। लेखक ने कहानी में पात्र के लिए जितना, जैसा लिखा है, निभा रहे हैं। फिर पर्दा गिरेगा, दूसरे कलाकार अपनी कला दिखाएँगे, चले जाएँगे। ये तो लहरों की तरह का संसार है, कोई बता भी नहीं सकता,किस लहर में क्या है, फिर लहरों को समझा कौन है। सब सागर में समा जाता है। अपना कुछ अलग से अस्तित्व थोड़े ही है। इतनी दु:खी ना हो, दु:ख होगा, फिर चिन्ता लग जाएगी, चिन्ता लगी तो जानिये आपकी देह भारी हो गई। उसी भार से आप डूबने लगेंगी, जब स्वयं ही डूबने का प्रबन्ध कर लिया तो उबरेंगे कैसे? जीजी मेरी मानो तो चिन्ता छोड़ो और ये सोचो कि चलो एक कष्ट कटा, जो नहीं हुआ वो होना नहीं था, जो हुआ हरि की इच्छा थी। उसे ही रखो सर माथे पर और हल्की हो जाओ।”

इधर ककड़ साहब को एक चिन्ता और लग गई कि जब से पत्नी डॉ. के यहाँ से वज़न करवा के आई है, प्रसन्न क्यों है? वे राज़ जानाने की चिन्ता में हैं, पत्नी के वज़न घट जाने की चिन्ता में हैं। डॉ. से “सैकण्ड ओपिनियन” लेना चाहते हैं। रिश्ते के एक डॉ. हैं, उनके घर चलने को कहते हैं। बड़े-सयाने-बच्चे के आगे अपनी चिन्ता फैलाई हुई है। बच्चे समझाते हैं तो ककड़ साहब और नाराज़ होकर कहते हैं, “तुम लोगों को हम लोगों की कोई चिन्ता है ही नहीं, कोई मरे जिए तुम्हें क्या?”

ककड़ साहब सोचने लगे हैं मिसिज़ पाली को कोई भयंकर रोग लग गया है, वे अब बचेगी नहीं। ऐसा रोग जो “डाइग्नोस” नहीं हो पा रहा। उन्हें अब ये चिन्ता है कि पत्नी नहीं रहेगी तो वो ‘सोशल सर्किल’ से ‘कट’ से हो जाएँगे। चिन्ता है कि लोग कहीं ये ना कहने लगें कि ककड़ साहब ने यदि कोशिश की होती तो पाली बच जाती। सोच कर हँसी आती है कि दो प्राणी एक साथ रहते हैं एक साथ खाते पीते हैं पर सोच का कितना अन्तर है, दोनों के मार्ग अलग हैं। एक दिन तो ककड़ साहब ने सोच की चरम कोटि में ये सोचा कि यदि वे चिन्तातुर रहते निष्प्राण हो गये तो पाली का क्या होगा, पाली तो बेचारी अकेली पड़ जाएगी, कहाँ से बिजली का बिल देगी,कहाँ से टेलीफोन का पैसा भरेगी, उसकी कार में गैस कौन डलवाएगा, इसे बच्चे कहीं बेसमैण्ट में ना डाल दें। वो भोली है। रिश्तेदार कहीं चालाकी से पैसा ना हड़प लें। किसी कागज़ पर वो गलती से हस्ताक्षर न कर दे। तो कुल मिला कर मि. ककड़ की मानसिकता भयभीत सी है पर वो पत्नी (मिसिज़ पाली) से कुछ कह नहीं पाते कि सचेत रहना, तेरा भोलापन तुझे किसी कठिनाई में ना डाल दे। इधर मिसिज़ पाली का विचार है, जिसको जैसा जीवन जीना है, वो स्वतन्त्र है। तुम जो कर रहे हो अपने ही लिए कर रहे हो। चिन्तित रह कर, भारी बन कर जीवन घिसटने की इच्छा है तो वही करो, निश्चिन्त हो कर भार निवृत्त हो कर (ईश्वर पर सब भार डाल दो) जीना है तो वो भी तुम्हारी इच्छा है। जो चाहे करो। मैंने तो चिन्ता को भीतर आने ही नहीं देना।

उन्होंने अपने खाने पहनने के नियम कभी नहीं बदले। सूती, रेशमी साड़ी पहनना, सादा भोजन पाना, सच बोलना, आडम्बर से दूर रहना, ईर्षा तो छू कर नहीं गई, वे कहती सबके सर पर उम्सके मन माफिक टोकरी रखी है और सबकी टोकरियाँ भरी पड़ी हैं। सम्हल के चलो। गन्तव्य तक पहुँचना है, हलकी कर लोगे तो अच्छे से पहुँच सकोगे। वरना दोनों हाथों से अपने पाप की टोकरी सम्हालते जब पहुँचोगे, तो हाथ प्रणाम के लिए मुक्त न होंगे। क्या करोगे? व्यक्तित्व में आकर्षण तो था, सभी उनके साथ बैठना चाहते परन्तु जब वे अपनी दिनचर्या के कठिन नियम बताती तो कोई उस पर चलना ना चाहता और वे धीरे धीरे अकेले चलने लगती। अकेले चलना उनके लिए आशीर्वाद सा साबित हुआ और वे धीरे-धीरे हल्की होते चली गईं।

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