मेरे भीतर का अणु अब मुझे मिला है। भीतर ही था पर हम इतना भीतर गये नहीं तो मिलता कैसे? अणु को मैं इसके सही अर्थों में ही लिख रही हूँ। ये इतना सूक्ष्म होते हुए भी मेरा आधार है, इसी पर मेरे ये शिला सी, पर्वत सी, भौतिक काया निर्भर है। इसे जानने पहचानने में इतना समय लग गया ना जाने क्यों? या शायद, इस लिए कि ईश्वर प्रदत्त स्वतन्त्रता का सदुपयोग ना हो सका होगा हमसे। जीवन की कई घटनाएँ अब हमें सन्देशा सा देती लगती हैं कि हम कब कब भटक गये थे। जैसे किसी मित्र के घर जाने की इच्छा तो हो जाए पर हम घर से ही ना निकलें। जैसे घर से तो निकले परन्तु उसका पता याद ना हो। जैसे पता याद हो पर मार्ग कहाँ से कैसे दायें बाएँ मुड़ेगा इसका ज्ञान ना हो।

कई बार ऐसी अनुभूति होती है अब कि जो सुख हुए वो उसी अणु के होने के कारण हुए अन्यथा इस पाँच तत्त्वों में से किसी में इतना सामर्थ्य कहाँ कि कुछ अनुभव कर सके। इन पाँचों तत्त्वों को जोड़ने वाला तो वही अणु है जैसे एक ब्¡द है और आस-पास की हल्की ãहार की जलराशि उसी ओर लुढ़क जाए और बड़ी ब्¡द बन जाए। लेकिन कभी कभी जब दुखी हो चुके होते हैं और फिर बैठे होते हैं तो लगता है बेकार इतना दु:खी हुए। ये तो जो हुआ है हो के गुजर ही जाना था। अगर दु:खी मन:स्थिति में किसी प्रकार शान्त रह सकें उसी अणु की खोज आरम्भ कर दें तो कई प्रकार के पाप से बचा जा सकता है। उसी तरह यदि सुखी है. या खुश हैं तो तुरन्त अणु की ओर चल पड़ें तो भी कई लोगों को दुख देने से बचे रह सकते हैं। हम अपने इन इन्द्रिय सुखों व दु:खों में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि पास खड़े जीव की उपस्थिति हमें ज्ञात नहीं रहती और हम अनुचित कह जाते हैं। हमने जो कहा होता है वो हमें वास्तव में ज्ञात भी नहीं रहता, बस आवेश है जो हमसे ऐसा करवा लेता है। ‘नियंत्रण’ ये बड़ी आवश्यक स्थिति है। अपने मन की, फिर जिह्वा की, फिर सुनने की, यहाँ तक कि केवल दृष्टिपात से भी तो हम कितनों को दु:खी-सुखी करते हैं। हम यूँ तो अनेकों बार ऐसी स्थिति में होते हैं जिस पर हमारा वश नहीं परन्तु फिर भी भले ये सब अनुभव होता है कि यदि हम भीतर के इस अणु के साथ हर घड़ी रहें तो काफी सारी समस्याएँ टल सकती हैं।

एक दिन मैं कार चलाते हुए घर आ रही थी। मुझमें थकान थी, आँखें बोझिल सी हो रही थीं। मन दो भागों में चला गया, एक कार चला कर घर पहुँचने की शारीरिक क्रिया करवाने में, दूसरा जाने कहाँ भीतर, ये खोजने में कि यदि मैं सो जाऊँ तो क्या हो? सो जाऊँ तो कार दुर्घटना हो जाए और मैं मुक्त हो जाऊँ आगे की मुझे कोई चिन्ता नहीं। जो टकराये मरे मराए हमें कुछ खबर नहीं रहेगी। तभी अचानक एक पल के लिए आँख मूँदी ही थी कि चेतना लौट आई। खोजी मन कहने लगा, अभी कहाँ, अभी तो कुछ पाया ही नहीं मुक्ति कैसी?

जान तो लो किस चीज से, किस स्थिति से मुक्ति का विचार आया है। ध्यान, ज्ञान,पूजा, अर्चना, अाधना कर के भी क्या होगा अगर भीतर के अणु के साथ लापरवाही करते रहे। ये वही अणु है जो हमें मिला है इसी से हम यहाँ दूर पड़े हैं, इसी को हमें अपने बड़े (सम्पूर्ण) से मिलाना है, जितने ज्यादा काल तक दूर रहेंगे क्षीण होते जाएँगे।

मुझे जिस घड़ी से ऐसी अनुभूति हुई है मेरे भीतर से कई अन्धेरे पर्दे उठ गये हैं, जैसे मैं मैं नहीं हूँ एक यन्त्र हूँ। मैं मैं नहीं हूँ एक तुम हूँ, मैंने जो कहा तुमने कहलाया, मैंने जो सुना व्यर्थ प्रतिउत्तर दिया, व्यर्थ प्रतिक्रिया की। यहाँ तक कि अब ये भान हुआ है कि जो भान था कि संतान मैं ने उत्पन्न की, वो कितनी बड़ी मन की जटिलता थी। ये तो अणु है उसमें से कुछ अणुऔर उत्पन्न होने ही थे। उनका तोल आकार-प्रकार भी पूर्व-निश्चित ही था। एक प्रक्रिया पूर्ण हुई अब अणु को समझो और परम अणु की ओर प्रस्थान करो। कोई पुस्तक मुझे रुचिकर नहीं लगती,जाल है शब्दों का, जाल है विभिन्न उलझावों का। मानना है तो एक बार भी कही बात को मान लो, वरना यहाँ से वहाँ तक आगे से पीछे तक, ऊपर से नीचे तक तुम माया की छाया में भटक गये हो। निकलो, बाहर निकलो। सरल सामान्य स्वाभाविक गति उस ओर चल पड़ो जहाँ जाना है। विलम्ब न करो घड़ियाँ गिनी चुनी हैं। सब कुछ तो तुम्हें ऐसा नहीं लगता प्रानियोजित है। बालपन के अज्ञान में जवानी के आवेश में जो हुआ सो हुआ अब तो सब साफ है। जाने क्यों वो सब हम करते रहे उन्नति के नाम पर और उस सूक्ष्म अणु को पहचाना नहीं। फिर जो वास्तव में हमें इन सब से अलग सही मार्ग पर ले जाने को है।

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