अनाम-तस्वीर

14-03-2015

अनाम-तस्वीर

दिनेश कुमार माली

मूल कहानी: गोपा नायक
हिन्दी अनुवाद : दिनेश कुमार माली

यह एक सुनहरी सुबह थी। ऐसे दिनों में गुलाबी धूप देखने से किसी को भी ऐसा लगता, मानो वह स्वर्ग में हो। मगर दुःख की बात है, जो चमकते हैं, वह सोना नहीं होते। जब वह नींद से जागी थी, उसके सामने पड़ा था आलस्य से भरा हुआ दिन व तंद्रा-ग्रस्त सुबह। वह आराम-कुर्सी में काफ़ी लेकर बैठी हुई थी, फ़ायर-प्लेस के पास। आराम पूर्वक काफ़ी की चुस्की लेते-लेते, ड्रेसिंग-गाउन पहनी अवस्था में उसने तय कर लिया था कि वह आज दिन भर मैड्रिड का अन्वेषण करेगी। उस दिन उसकी चाल में ठीक उसी प्रकार की लड़की जैसे उत्तेजना थी। मानो वह एकदम मासूम तथा चिंता-मुक्त रहने वाली एक स्वतंत्र नव-युवती हो। अगर सही शब्द में कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सारा जगत उसकी मुट्ठी में हो एक ओएस्टर की भाँति। जब वह मैड्रिड के मुख्य-रास्ते में जा रही थी, उसने भीड़ के मनुष्यों को एक सुन्दर से पोस्टकार्डनुमा तस्वीर में कैद पाया। गर्मी छुट्टियाँ मनाने आये हुए थे की पर्यटक लोग। माताएँ फ़ुट-पाथ पर बच्चों की प्रॉम को धकेल रही थीं तो उधर पिताजी लोग अपना-अपना सामान सँभालने में व्यस्त थे। नए जोड़े एक दूसरे के हाथों को पकड़े हुए थे। वह धूप के चश्मे से सभी को निहार रही थी तथा अपने प्रथम गंतव्य स्थान राज-महल के पास स्थित गिरजाघर में टहलने का आनंद उठा रही थी। उसका दिल अपने चारों तरफ़ के मानव-समुदाय के गीतों की धुन पर नृत्य करने लगा था, भावनाएँ उन्मत कर देती थीं। आनंद और उल्लास से ओत-प्रोत वातावरण था वह। खोज तथा विजय की कहानियाँ तो सार्वभौमिक होती हैं, क्या यह एक सत्य-अनुभव था अथवा एक मतिभ्रम?

वह "रेने सोफ़िया" की यात्रा पूरी कर चुकी थी। अब वह थक गयी थी तथा उसे भूख लग रही थी। पेंटिंग तथा उनके इतिहास की जानकारी उस दिन के लिए काफी थी। वह बैठ कर विश्राम करना चाहती थी। अचानक उसने एक बड़ा M देखा तथा सोचने लगी, क्यों नहीं आइस-क्रीम खाने के लिए उसमें जाया जाए? इससे बेहतर क्या होगा! वह उस M के चिह्न की तरफ़ बढ़ने लगी। तब कॉर्नर में बायीं ओर, काँच के बड़े दरवाज़े वाले, एक रेस्टोरेंट को देखा, जिसके अन्दर बार व कैफ़े भी लगे हुये थे। जब स्पेन में हो तो स्पेन वालों की तरह व्यवहार करो। गत रात्रि को अपनी यात्रा के दौरान तापस-बार में जाके उसने काफी आनन्द उठाया था। वह कैफे के बाहर लगे हुए टेबलों में एक टेबल पर बैठी तथा मेनू को देखने लगी। इससे पहले कि वह यह तय करती कि कहाँ कुछ खाया जाये अथवा नहीं, एक सुन्दर वेटर उसके पास तुरंत ही पहुँचा, वेटर ने अँग्रेज़ी में ड्रिंक्स का मेनू सामने पेश कर दिया था। मेनू को उसे लेना ही पड़ा। उसे ऐसा लगा कि मेनू की तरफ़ नहीं देखना, अनुचित होगा। कुछ समय बाद स्थिर मन से उसने निश्चय कर लिया था बैठ कर, शांति-पूर्वक अपने खाने का आनंद लिया जाये।

उसने "व्हाईट वाईन" तथा "मखनी-ओबर्जेन" का ऑर्डर कर दिया। उसने अपने सामने रखे हुए एक गिलास में पानी पिया तथा चारों-तरफ़ देखने लगी। नीले और सफ़ेद नायलोन के धागों से बुनी हुई केन-चेयर, मूड को और ख़ुशगवार बना रही थी। अचानक उसे याद हो आयी संग्रहालय में रखी हुई पिकासो की उन तस्वीरों की जिनकी भव्यता ने उसे सम्मोहित कर दिया था तथा उसके मन-मस्तिष्क में हज़ारों सवाल पैदा कर दिए थे। कितना अद्भुत ताल-मेल था तूलिका और तस्वीर की भाव-भंगिमा में! हर तस्वीर की आँखों में थी कोई न कोई कहानी। जैसे कि मानवता की एक महान कहानी में चित्रण किया हो, एक भावना का, एक अंतर्द्वन्द्व का, एक यंत्रणा का और एक अवसाद का। वह सोच रही थी, उन सभी औरतों को ऐसा क्या हो गया? क्या वे सब उनके जीवन में आयीं और अपने-आप को पेंटिंग बना कर चले गईं? वह कलाकार.... उस कलाकार की क्या कहें? क्या उन आँखों ने कभी उनको अभिभूत किया होगा? वह क्या था? एक क्षण का आकर्षण? उसकी आत्मा का संगीत? उसकी कला का प्रदर्शन? या उनके सपनों की उस नरकीय दुनिया में वे लोग "मोर्फ़िअस" का पीछा कर रहे हों?

वह अपनी शानदार व्हाईट वाईन और डज़र्ट के साथ लंच खत्म कर चुकी थी। अचानक उसका ध्यान कोने के किसी टेबल पर अकेले बैठे हुए सुन्दर आदमी की तरफ़ गया। वह उठ कर खड़ी हो गयी तथा उस जगह को तत्परता से छोड़ दिया। वह किसी दुविधा में नहीं पड़ना चाहती थी। वह आदमी उसका पीछा कर रहा था। यद्यपि वह दोस्त जैसा प्रतीत हो रहा था। उसकी आँखें कुछ तर्क कर रही थीं। वह यह बात समझ नहीं पायी कि वह आदमी क्यों उसका पीछा कर रहा था। उसकी जेब में प्लेटिनम क्रेडिट कार्ड था उस वज़ह से, उसकी हाथों में हीरे की चूड़ियाँ थीं उस वज़ह से, या फिर उसके दिखावे में कहीं जंगलीपन झलक रहा था उस वज़ह से? वह इतनी डर गयी थी कि कुछ सोच भी नहीं पा रही थी। उसे अपनी माँ की डाँट-फटकार याद हो आयी – "तुम हमेशा गलत आदमी को क्यों आकर्षित करती हो?" अपराध-बोध से ग्रस्त हो कर वह जल्दी-जल्दी भाग खड़ी हुई, सुरक्षित शरण-स्थल अपने होटल-रूम को। मगर वह कभी उन निगाहों को भूल नहीं सकी। आँखें ऐसे थीं मानो, कुछ विनती कर रही हों। यह क्या था? इतनी व्याकुलता क्यों? क्यों उसके पास इस प्रकार की बोलती आँखें थीं?

ऐसी ही निगाहों को वह पहले भी देख चुकी थी, उसी व्यग्रता से भरी हुई उन आँखों को, उस जान-ले लेने वाली आकर्षक निगाहों को। उसे याद आ गया उसने सर्वप्रथम देखा था कोलकत्ता के काली घाट के पीछे वाली गलियों में खड़ी उन औरतों की आँखों में उसी भाव-भरी चमक को।

तब वे कोलकत्ता में एक नयी शादीशुदा जोड़े के रूप में थे। उसका पति माँ काली का भक्त था। लगभग दस साल के दौरान कोलकत्ता में वे जितने दिन भी रहे, हर शनिवार को कालीघाट मंदिर जाना उनका धार्मिक नियम सा था। उस रात उनको थोड़ी सी देर हो जाती थी। वह भक्तों की भीड़ में अपना रास्ता पाने के लिए लड़ रही थी, अपनी प्यारी जान बचाने के लिए अपने पति की कलाई को अपने हाथ से पकड़ लिया था, उसने एक चैन की साँस ली। जब वह मुख्य रास्ते पर पहुँची, तो उसने देखा कि खड़ी हुई औरतों की एक पंक्ति जो उसे घूर रही थी। कुछ सेकंडों के लिए वह भौंचक्की रह गयी। ऐसी ही कुछ घटनाओं से, मानवता सार-सार हो गयी थी। कचड़े के ढेर से निकली समस्त असुरक्षा के साथ एक कुरूप अंतरंगता। और अन्य कौन सी जगह आरामदायक होगी? सममुच एक मंदिर-प्रेम और भक्ति से ओत-प्रोत वह भवन। जबकि पिछवाड़े की गलियों में, मानवीय इच्छा का एक घिनौना खेल, एक मोल-भाव की जा रही एक मूलभूत आवश्यकता, सामान के बदले रुपये-पैसे, सुख-सुविधाओं की इच्छा, निवाले के लिए नैतिकता। मोक्ष के लिए चिल्लाती हुई एक आवाज़, जिसे इन्हीं क्रूर एवं निष्ठुर हक़ीक़तों से केवल शांत किया जा सकता था, उसके मेरुदंड से संचारित वेदना की इस अनुभूति से उसका हृदय धड़कने लगा।

उस शाम को उसने अपने पति के साथ निराश होकर उस पतली संकरी गली को पार किया था। दम घुटने वाले एक अनुभव के साथ वह जा रही थी। वह अपने पति से अनजाने में ही जबरदस्त चिपक गयी थी। बाद में, उसने अपनी एक बंगाली दोस्त को उस घटना के बारे में बात बताई थी। उसने खासकर रात होने के बाद उन गलियों में से नहीं जाने के लिए चेताया था। जिन चीज़ों को आप बदल नहीं सकते हो, उन्हें स्वीकार करो। उस दिन गांधी जी का दर्शन संगत लग रहा था, "अपनी आँखें, कान, मुँह बंद करने का"। लेकिन उसकी इन्द्रियों ने येन-केन-प्रकारेण उसको धोखा दिया। उस रात्रि को वह बेचैन थी। उसे अभी तक विश्वास नहीं हो पा रहा था कि उस दिन उसने क्या देखा।

इस धंधे को दर्शाने वाली सभी फिल्में, सारे ग्लैमर ने उसको बहुत ही गहरी सोच में डाल दिया। जब वह स्कूल में पढ़ती थी उसने कमल हासन कि "महानथी" फिल्म देखी थी। उसे देख कर वह कई दिनों तक सो नहीं पाई थी। वह विश्वास करना चाहती थी कि उन लोगों को इस धंधे में जबरदस्ती लाया जाता है। उसने कई कहानियाँ भी पढ़ी थीं इन सबके बारे में। कोई भी अपनी स्वेच्छा से उस धंधे को स्वीकार नहीं करता है। किसी को भी किसी काम में लाने के लिए जबरदस्ती कैसे की जा सकती है? क्या यह वास्तविक सत्य है कि यह लोग धंधे में से निकल नहीं पाते? कितने कष्ट की बातें हैं!

वह उन निगाहों के बारे में, जिसने उसके मन-मस्तिष्क को विचलित कर दिया था, उत्तर ढूँढने का प्रयास कर रही थी। वह भूलना चाहती थी, और आज वही सब पुरानी स्मृतियाँ उसके पास लौट आयी थीं। हाँ, वे वही पुरानी स्मृतियाँ थीं। उन्हीं निगाहों से फिर उसका एक बार आमना-सामना हुआ। वे निगाहें उसकी यादों से चिपक सी गयी थीं। लगभग एक साल बीत चुका था, परन्तु ऐसा लग रहा था मानों यह कल की ही घटना हो। अँधेरे में पीछा करता वही ग्रीक युवक जैसा गठित शरीर, सुनहरा-भूरा रंग, औसत लम्बाई से ज़्यादा। वह परफ़ेक्ट, स्मार्ट, सुन्दर और स्वस्थ, सबल "हंक" युवक की कसौटी पर खरा उतरने वाला, सही शब्दों में काल्पनिक पुरुष प्रतीत होता था। चेहरे पर एक रहस्यमय निशान उसकी सुन्दरता को और बढ़ा देता था। बहुत ही सुन्दर वह स्पेनवासी! मनमोहक सौंदर्य! रहस्यमय आँखों से झलकती थी वह जानलेवा चाहत। वे आँखें उसकी आत्मा की खिड़की थी। वही सार्वभौमिक संगीत, वही इंसान, फिर भी अभी तक अस्पृश्य। वह उन आत्माओं के सागर की प्रशांत गहराइयों में डूब जाना चाहती थी। मनुष्य के स्वभाव तथा व्यवहार के रहस्य, हमारे चेहरे पर साफ़-साफ़ झलकते हैं। वह उन निगाहों से अभिभूत हो गयी थी। वे निगाहें हज़ारों शब्द बोल गयीं। कैसे उन शब्दों को सुनने की इच्छा करती! उसका एक अंश, उसके पास बैठ कर उसकी कहानी सुनना चाहता था। अभी भी वह जानती थी कि किसी अजनबी को अपने कमरे में आमंत्रित करने का साहस नहीं था। उसे अपने कायरपन पर पश्चाताप हो रहा था, वह जानती थी कि उसने एक अद्भुत इंसान की आत्मा के रहस्यों को उजागर करने का सुनहरा अवसर खो दिया।

मैड्रिड की वह शाम कुछ अलग लग रही थी, उसके कायरपन के कारण। मानवता की वे निगाहें कला और कलाकारों की वे निगाहें, जीवित और मरे हुए लोगों की वे निगाहें जो ध्यान आकर्षित करती थीं। वे इस बात की वकालत करती थीं, कि उन्हें पढ़ा व समझा जाए। वह कुछ देना चाहती थी। हमारे साथ रहना चाहती थीं। हमारे बीच रहना चाहती थीं। अभी भी हममें से कितने लोगों में वह साहस है, जो उन निगाहों की तारीफ़ करे तथा उनकी गहराइयों को नापे? शायद यही बात है, जिसको केवल महान कलाकारों ने फलीभूत किया। भले हम उनकी तारीफ़ व प्रशंसा करें, पर हमारे भीतर क्या उनका अनुकरण करने का साहस है? जब तक वे निगाहें उसको अभिभूत करती रहेगी, तब तक उसे अपनी कमज़ोरी पर पश्चाताप होता रहेगा।

बिना नाम की, मैड्रिड की यह तस्वीरें अभी भी अपूर्ण दिखाई देती हैं।

क्या यह अंतराल कभी भर पायेगा?

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