वो क्या था!
राजेन्द्र शर्मा
क़िस्सा जो आँखो-आँखों में पल रहा था।
हाय आज सई साँझ सूरज सा ढल रहा था॥
वो कह न सका और वो रह न सकी।
कुछ था दोनों के दरमियाँ जो रिस रहा था॥
दिन ढलने लगे थे और रातें बढ़ने लगी थीं।
उदासी में भी लबों पे स्मिति छाने लगी थी॥
वो छुपाता रहा और वो जताती रही।
कुछ था दोनों के दरमियाँ जो मचल रहा था।
सख़्त प्रहरों में भी अरमाँ जवाँ हो रहे थे।
बयारों में भी कई पुष्पसार घुल रहे थे।
वो तपता रहा और वो निखरती रही।
कुछ था दोनों के दरमियाँ जो पिघल रहा था।
बाग़-बग़ीचों में भी आम के बौर खिल रहे थे।
शहर की फ़ज़ाओं में भी गुलाबी रंग घुल रहे थे॥
वो महकता रहा और वो कुहुकती रही।
कुछ था दोनों के दरमियाँ जो पनप रहा था॥
बात इतनी सी बैशाख की आग सी फैल रही थी।
मज़हबियों की आँखों में ज़र्रे सी रड़क रही थी॥
वो बच न सका और वो नासमझ जी न सकी।
इश्क़ था दोनों के दरमियाँ जो मुकम्मल हो रहा था॥