रजस्वला
राजेन्द्र शर्मा
रजस्वला
सोचो गर औरत ना होती
तो
प्रेम के बीज कहाँ उगते
रजस्वला
सोचो गर औरत ना होती
तो
हम और तुम कहाँ होते
रजस्वला
सोचो गर औरत ना होती
तो
राम और कृष्ण कहाँ होते
सोचो
क्या रजस्वला होना
औरत का पाप है
या
उसे ईश्वर का वरदान
ये
उसकी कमज़ोरी नहीं
ताक़त है
ये
मातृत्व का प्रतीक है
ये
उसके वुजूद की नींव है
ये
सृजन की प्रक्रिया है
फिर हाहाकार कैसा
अपवित्रता!
ये
भूल है हमारी
जो राह भटके
ये दुनियाँ इक जन्नत है
उसमें
धरती सा धैर्य
आकाश सी विशालता
समुद्र सी गहराई लिए
औरत इक फ़रिश्ता है
मेरा कहना है—मान लो
इसे मानव निर्मित
धर्म की बेड़ियाँ ना पहनाओ
॥ये तो स्वयं परमात्मा है॥