खेल
राजेन्द्र शर्मा
मोहन को इतना शौक़ था
खेलने का फूलों से कि
चुरा लिया करता था
किसी की भी बग़िया से
अधखिले ही फूलों को
जो कुचले जाते
खिलने से पहले ही
खेल ही खेल में
शौक़ ही शौक़ में
मोहन के
और
वह बहुत ख़ुश होता।
अभी एक फूल उसकी
बग़िया में भी लगा था
वह इसे नज़र भर
देखना भी नहीं चाहता था
उसे डर था
मैला हो जाने का फूल के
अपनी ही बग़िया में।
जैसे-जैसे वह फूल खिल रहा था
अधिक आकर्षित करता
इस खेल के शौक़ीन भँवरों को
अपनी सुंदरता से
अपनी सुगन्ध से
और देखते ही देखते
मँडराने लगे कई भँवरे
ललचायी नज़रों से
उस फूल के इर्द-गिर्द।
उनकी नज़रों से बचाये रखने के लिये
मोहन ने बिखेर दी कँटीली झाड़ियाँ
उस फूल के चारों ओर
फिर भी
सफल हो जाता है
कोई मोहन
उस सुरक्षा चक्र को भेदने में
जो कुचल कर चला गया
खेल ही खेल में
शौक़ ही शौक़ में
खिलने से पहले ही
उस अध खिले फूल को।
पर आज पड़ा है मोहन
कुचले हुए एक साँप सा
कटे हुए एक पेड़ सा
उन्हीं कँटीली झाड़ियों में
अपनी ही बग़िया में
उस मासूम फूल के साथ।