रिश्ता
राजेन्द्र शर्मा
टूटे पंख परिन्दे का फुदकना भी
उन्हें जीवन भर सालता रहा।
एक दिन ख़त लिखकर पूछ ही लिया
राज़-ए-सुकून ज़िन्दगी का॥
जो वफ़ा-ए-मोहब्बत में उनकी
सदा मुस्कुराता रहा।
आज बड़ी ही सादगी से
अलविदा कह गया ज़माने को॥
बारात-ए-जनाज़ा पर दो बूँद
अश्क भी न छलके आँखों से जिनकी।
दिल बयार-ए-बसंत में किसी
हिमखंड सा पिघलकर निचुड़ता रहा॥
बिना कुछ कहे मौन में बस
इतनी सी ही शिकायत थी।
कमबख़्त दम ही भरता रहा पर
जान फिर भी न सका॥
जीने की वजह सारी जाते-जाते
अपने साथ ही ले गया।
फिर, कुछ ही समय में एक और
बारात-ए-जनाज़ा उसी रास्ते से गुज़री॥
और यूँ उनका रिश्ता मुकम्मल हो गया—
किसी की ज़ुबाँ पर ग़म था
किसी ज़ुबाँ पर हैरत तो
किसी की ज़ुबाँ पर गुफ़्तगू॥