पीक
राजेन्द्र शर्मा
राजनीति इक दिन
इतनी बाज़ारू हो जायेगी
ये सोचा न था
राजनीति इक दिन
बनिये की तराज़ू हो जायेगी
ये सोचा न था।
जिसमें--
धर्म, मज़हब
जात, बिरादरी
अमीरी, ग़रीबी
क्षेत्र, परिवेश
भाषा, बोली
स्त्री, पुरुष
शिक्षित, अशिक्षित
कामगार, बेरोज़गार
मज़दूर, किसान
शहरी, आदिवासी
सब तोला जा रहा है
एक ही माप
राजनैतिक हैसियत से
सब कुछ ख़रीदा, बेचा जा रहा है
एक ही भाव
वोट के गणित से।
राजनीति इक दिन
इतनी आवारा हो जायेगी
ये सोचा न था
राजनीति इक दिन
इतनी बेक़ाबू हो जायेगी
ये सोचा न था
जब—
इंसान, परिवार,
समाज की पहचान
महज़ रह जायेगी
मत संख्या!
ये सोचा न था
राजनीति इक दिन
पान की दुकान हो जायेगी
ये सोचा न था॥