उसे ग़ुस्से में क्या कुछ कह दिया था
स्व. अखिल भंडारीउसे ग़ुस्से में क्या कुछ कह दिया था
अकेले में वो शायद रो रहा था
वो शायद ख़ुश नहीं था मुझ से मिल कर
मिला तो था मगर चुप ही रहा था
था अपने ही नगर में अजनबी वो
सभी जैसा था पर सब से जुदा था
नहीं था कोई मुझ जैसा वहाँ पर
मैं उन लोगों में क्यों शामिल हुआ था
अभी कहने को था बाक़ी बहुत कुछ
मेरी आवाज़ को क्या हो गया था
मज़े में सो रहे थे लोग घर के
मगर पीछे का दरवाज़ा खुला था
मैं ख़ुद को ढूँढ तो लेता यक़ीनन
मैं अपने आप से उकता गया था
2 टिप्पणियाँ
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बहुत बहुत ख़ूब , गहराई और सच्चाई लिए हुए ये ग़ज़ल सचमुच लाज़वाब है, दिल से दाद कुबूल करें
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nice! Ghazal Sahab!!
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