तीन मौसमी कविताएँ
स्व. अखिल भंडारी1. धूप का इंतज़ार
सुबह होते ही मैं खिड़की के परदे खोल देता हूँ
मेरे कमरे की यह छोटी सी खिड़की
जिस दिशा में है
उधर से धूप का आना असंभव है
मगर फिर भी
सुबह होते ही मैं खिड़की के परदे खोल देता हूँ
2. बेमौसम हिमपात
दरख़्तों पर नये पत्ते
हरे होने लगे हैं लॉन
चटखती महकती कलियाँ
चमकती धूप, हल्की हल्की तपिश
धीमे धीमे से बहती सर्द हवा
खुला खुला सा नीला आकाश
वापसी मौसमी परिंदों की
गर्म कपड़ों में सैर करते बुज़ुर्ग
सब तरफ़ फूल खिलने वाले हैं
मगर, अचानक, बरफ़ की चादर
स्याह बादल, सूनी गलियाँ
सारा मंज़र बदल गया है
3. यह बारिश कब रुकेगी?
कई दिन से यह बारिश हो रही है
न जाने दिल में बेचैनी सी क्यों है
न जाना है कहीं, और न ही कोई आने वाला है
मगर हाँ, सामने उस पार्क में
जो ढेर से बच्चे हमेशा खेलने आते हैं
वो बच्चे, आज फिर, बाहर न आयेंगे
यह बारिश कब रुकेगी?
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