किनारे पर खड़ा क्या सोचता है

01-03-2019

किनारे पर खड़ा क्या सोचता है

स्व. अखिल भंडारी

किनारे पर खड़ा क्या सोचता है
समुंदर दूर तक फैला हुआ है

ज़मीं पैरों से निकली जा रही है
सितारों की तरफ़ क्या देखता है

चलो अब ढूँढ लें हम कारवाँ इक
बड़ी मुश्किल से ये रस्ता मिला है

हमें तो खींच लाई है मुहब्बत
तुम्हारा शहर तो देखा हुआ है

नये कपड़े पहन के जा रहे हो
वहाँ कीचड़ उछाला जा रहा है

वहाँ तो बारिशें ही बारिशें हैं
यहाँ कोई बदन जलता रहा है

कभी उस को भी थी मुझ से मुहब्बत
ये क़िस्सा अब पुराना हो चुका है

बुरे दिन हैं सभी मुँह मोड़ लेंगे
“ज़माने में यही होता रहा है”

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