तेरा उपनाम
राजेंद्र कुमार शास्त्री 'गुरु’ऐ! सनम आज इक
बात कहना चाहता हूँ
इश्क़ के दरिया में,
तेरे साथ बहना चाहता हूँ।
हो जहाँ इश्क़ मुकम्मल,
और प्यार भरा आँगन
तन्हाई पास ना हो,
ऐसे घर में रहना चाहता हूँ।
रोज़ पूछती हो तुम मुझसे,
मैं कैसी दिखती हूँ?
सारी दुनिया से प्यारी,
मैं तुमको कहना चाहता हूँ।
है ख़्वाहिश, हों हम दोनों
इश्क़ के समंदर में
पास तुम बैठी रहो,
और नाव मैं टोहना चाहता हूँ।
तेरी दुआओं में शामिल हैं,
फ़क़त मेरी बुलंदियाँ
तेरे सपनों की ख़ातिर,
मैं शमां सा जलना चाहता हूँ।
धूप में जलकर, हरदम
छाँव मुझे तुम देती हो
ओढ़ाकर छाता तुझको,
तपिश मैं सहना चाहता हूँ।
मैं कहूँ और तुम सुनो,
ये रिवाज़ मुझे मंजूर नहीं
पास बिठा कर रात भर,
तुझे भी सुनना चाहता हूँ।
माज़ी मेरा उलझा हुआ
था ग़मों के जालों में
अब गले लगाकर तुझको
मैं हँसना चाहता हूँ।
उपनाम मेरा अपनाने की,
बंदिश ना कोई होगी।
तेरे उपनाम से अपनी,
पहचान बनाना चाहता हूँ।