सुबह का वक्त था। शरद ऋतु अपनी चरम सीमा पर थी। उत्तरी हवाओं का दौर पिछले एक हफ़्ते से जारी था। पर फिर भी स्कूली बच्चे रोज़ अपने भारी-भरकम बस्तों के साथ स्कूल जाते। इस दूर-दराज़ वाले रेगिस्तानी गाँव में यही एक मात्र विद्यालय था जहाँ बच्चे कड़ाके की ठण्ड में भी शिक्षा ग्रहण करने जाते थे। इस विद्यालय का संचालन एक पुराने जर्जर भवन में होता था। श्यामपट्ट का रंग देखकर शायद ही कोई कहे की ये श्यामपट्ट है और कुछ शैतान बच्चों ने तो इनके नाम सफेदपट्ट तक रख दिया था क्योंकि कई वर्षो से काला रंग न होने की वजह से चॉक के सफ़ेद बुरादे के कारण इनका रंग सफ़ेद जो हो गया था। पुराने जर्जर भवन में रंग-रोगन व मरम्मत का काम भी काफी वर्षो से नहीं हुआ था जिस कारण चूने से बनी छत से चूना अक्सर नीचे गिरता रहता। भवन के लोहे के जाली जंगले व फ़र्नीचर भी टूटा हुआ था। जिस कारण बच्चों के अध्यापन कार्य में रुकावट आती रहती क्योंकि जब वर्षा होती तो छत से पानी टपकता और कड़ाके की ठंड में खिड़की रहित कमरों में ठंडी हवा आती रहती किन्तु फिर भी बच्चे अपनी पढ़ाई में जुटे रहते।
उस दिन भी हमेशा की तरह कड़ाके की ठण्ड थी और बच्चे प्रथम कालांश से पहले अंग्रेज़ी पढ़ रहे थे। उनके बीच में मात्र यही बातें हो रहीं थी कि अभी मास्टरजी आने वाले हैं और वो हमारा गृहकार्य की जाँच करेंगे और पूछेंगे। सभी अपने अपने काम में व्यस्त थे। कोई बचा हुआ अपना काम कर रहा था तो किसी को मास्टरजी से मार खाने की चिंता। किन्तु कक्षा के एक कोने में सौरभ नाम का विद्यार्थी बैठा था। उसकी मासूम सी शक़्ल ये बयां कर रही थी की शायद आज उसके साथ कुछ ग़लत होगा। सभी बच्चे अपने काम में जुटे थे किन्तु सौरभ ना तो पढ़ रहा था और न ही याद कर रहा था।
वह कुछ करे, उससे पहले मास्टरजी कक्षा में आ गये। आते ही उन्होंने सबसे पूछा, "हाँ विद्यार्थियो गृहकार्य पूर्ण है?"
सभी ने मास्टरजी की सुर में सुर मिलते हुए कहा, "हाँ मास्टरजी पूरा है।"
किन्तु जब सौरभ कुछ नहीं बोला तो मास्टरजी ने सौरभ से पूछा, "हाँ सौरभ बोल गृहकार्य पूरा है?"
"नहीं मास्टरजी," जब सौरभ ने नीचे गर्दन करके कहा तो मास्टरजी ने अपना आपा खो दिया ग़ुस्से में आग बबूला होकर बोले, "क्यों नहीं है पूरा? मैंने कल क्या कहा था की काम पूरा करके लाना वरना स्कूल में मत आना। आज तो तेरी पिटाई करनी ही पड़ेगी। ऐ! मुकेश जा डण्डा लेके आ मैं भी तो देखूँ कैसे नहीं करता है ये काम?"
बेचारा सौरभ मास्टरजी का ग़ुस्सा देखकर चुपचाप खड़ा रहा। वह कुछ बोले उससे पहले ही मास्टरजी ने डण्डा मँगा लिया और पीटना शुरू कर दिया।
सौरभ के रोने की आवाज़ सुनकर प्रधानाध्यापक दौड़कर कक्षा में आये और सौरभ को छुड़ा लिया। वो सौरभ व नये अध्यापक को कार्यालय में लेकर गये और रोते हुए सौरभ से पूछना शुरू किया, "बोल सौरभ आज काम क्यों नहीं करके लाया?"
सौरभ ने अपने अधरों को खोलना चाहा वह कुछ बोले उससे पहले ही अंग्रेज़ी का नया अध्यापक बीच में बोल पड़ा, "सर यह काफ़ी दिनों से काम करके नहीं ला रहा है यह कोई नई बात नहीं है।"
"क्या ये सच है बेटा?"
प्रधानाध्यापक ने जब सौरभ से प्यार से पूछा तो सौरभ ने कहा, "हाँ मास्टरजी गुरूजी सच कह रहे हैं। मैं काफ़ी दिनों से काम करके नहीं ला रहा हूँ।"
"पर क्यों? पहले तो तू कक्षा में सबसे होशियार था। अब ऐसी कौन सी बात हो गयी जो तू काम करके नहीं लाता है?"
प्रधानाध्यापक की बातें सुनकर सौरभ को थोड़ी राहत महसूस हुई किन्तु वह कुछ नहीं बोला तो प्रधानाध्यापक ने फिर से कहा, "बोल बेटा ये मास्टरजी तुम्हें नहीं मारेंगे। बेख़ौफ़ होकर कहो।"
"गुरूजी पिछले महीने मेरी बहन की शादी हो गई। मेरी माँ विकलांग है और पापा खेती का काम करते हैं। पहले तो घर का सारा काम दीदी करती थी किन्तु अब मुझे और मेरी छोटी बहिन सोनू को मिलकर करना पड़ता है। शाम को भी मैं पढ़ने की पूरी कोशिश करता हूँ किन्तु घर में बिजली नहीं है तो गृहकार्य पूर्ण नही कर पाता।"
इतना कहते-कहते सौरभ की आँखों से अश्रु धारा बह निकली। गुरूजी ने सौरभ को सांत्वना देते हुऐ कहा, "बेटा मैं तेरे पापा से कहूँगा की वो तुम्हारे घर बिजली का बंदोबस्त करें और जब तक वो ऐसा नहीं कर पातें हैं तब तक तू शाम को मेरे पास मेरे घर पढ़ने आ जाना।"
गुरूजी के इतना कहते ही पास खड़े मेरे भी आँखों में आँसू आ गए। मुझे दुःख इस बात का हुआ कि उस नये अध्यापक ने बिना ये जाने की सौरभ अपना काम पूरा करके क्यों नहीं लाता? उसे पीटना शुरू कर दिया और हँसी उस डंडे को देखकर आई क्योंकि हमें भी बचपन में न जाने कितने गुरुजनों द्वारा डंडे का अनमोल प्रसाद मिला है। पर जो भी हो आज भी हमें प्रधानाध्यापक जी जैसे गुरु मिल जायेंगे जो गुरु और शिष्य के बीच बढ़ रही "खाई" को पाटने की कोशिश करते रहते हैं।