तलाश...
राजेंद्र कुमार शास्त्री 'गुरु’"समझ में आ गया क्या बच्चो?" मैंने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों को अँग्रेज़ी का एक निबन्ध पढ़ाने के बाद पूछा। हालाँकि मैं ये बख़ूबी जानती थी कि उन्हें यह पाठ समझ में नहीं आया है। क्योंकि जिस स्तर का वो निबन्ध था, शायद उस स्तर के विद्यार्थी कक्षा-कक्ष में नहीं थे। मेरे सामने एक कठिन चुनौती थी। लेकिन विद्यार्थी होशियार बहुत ज़्यादा थे, उन्होंने झट से कह दिया," हाँ! मैडम समझ में आ गया।" मैंने नज़रें उठा के जब देखा तो ये बात लगभग सभी विद्यार्थी बोल रहे थे। लेकिन एक लड़की शांत थी। वह हमेशा की तरह लड़कियों की पंक्ति में अंतिम छोर पर बैठी थी। भोली सी सूरत, मुश्किल से कभी-कभी मुस्कुराने वाली, वह लड़की दुनिया से कटी- कटी सी लग रही थी। उसे देख कर ऐसा लग रहा था, मानो वह मेरी ही छवि हो। मैं भी तो उसकी तरह मुस्कुराना मानो भूल ही गई थी।
बचपन में अध्यापकों की डाँट से डरने के कारण कम बोलने लगी थी और वो स्वभाव ज़िन्दगी में कब घुल गया पता ही नहीं चला। जब दुनियादारी की समझ हुई तो नौकरी चाहिए थी। ऐसे में मैं भी शुरू हो गई अन्य युवाओं के साथ दौड़ लगाने। ये जाने बिना ही कि जिस दौड़ में मैं शामिल हुई हूँ क्या वो मेरे लायक़ है? लेकिन फिर भी जैसे-तैसे कर के नौकरी प्राप्त कर ली। सोचा जैसे ही नौकरी मिल जाएगी तो ख़ुशी के मारे उछलूँगी। लेकिन वो तलाश ख़त्म नहीं हुई। मुझे ख़ुशी नहीं मिली। आख़िर फिर ख़ुशियों को तलाशने की क़वायद शुरू हो गई। इस तलाश में कब शादी की उम्र हो गई पता ही नहीं चला। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। माँ ने फिर शुरू कर दी एक ऐसे लड़के की तलाश जो मेरे लायक़ हो। जो मेरी भावनाओं को समझे। लेकिन जो भी लड़के मुझे दिखाए गए, वो न जाने क्यों मुझे इस लायक़ नहीं लगे? आख़िरकार मेरी माँ ने हार मान ली। उन्होंने सोचा में मानने वाली नहीं हूँ।
मेरा मन इन्हीं ख़्यालों में गोता लगा रहा था कि इतने में घंटी बज गई। उस दिन मैं उस लड़की से बात नहीं कर सकी। लेकिन अगले ही दिन मैं पुन: उसके पास गई। पास जाकर मैंने उससे उसका नाम पूछा। उसने धीमे से बुदबुदाया, “मैडम! क़िस्मत।”
"वाह! कितना प्यारा नाम है तेरा,” मैंने नक़ली मुस्कुराहट मुस्कुराते हुए उससे कहा। जिसका उस पर कोई असर नहीं हुआ। शायद मुस्कुराहटों से उसका नाता टूट गया था। साधारण बातचीत के बाद मैंने उसे कल बताए पाठ के बारे में पूछना शुरू किया। इस दौरान मुझे पता चला कि उसे तो अँग्रेज़ी पढ़नी तक नहीं आती। मैं आश्चर्यचकित थी। सोचा भला इतनी सालों तक इस पर किसी भी अँग्रेज़ी के शिक्षक ने ध्यान क्यों नहीं दिया? लेकिन अगले ही पल मुझे अहसास हो गया कि मैंने भी तो शिक्षिका होने का दायित्व पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से नहीं निभाया है। मुझे भी तो इस विद्यालय में आए हुए छह माह हो गए हैं। आख़िर मुझसे ऐसी भूल हो कैसे गई? ऐसे अनेकों सवाल मेरे दिमाग़ में कौंध रहे थे। ख़ैर अब आगे बढ़ने का समय था। अब मुझे उसे होशियार बनाने का प्रयास शुरू करना था।
मैंने शुरू मैं उसे अँग्रेज़ी के सामान्य शब्दों से परिचित करवाया। वह रोमन के आधार पर मेक को मके बोलती तो कभी फ़्यूचर को फुटूरे। इस दौरान कभी-कभी हँसी के फ़व्वारे भी छूट पड़ते। अब मुझे उसके साथ वक़्त बिताना अच्छा लगने लगा। मैं जिन मुस्कुराहटों की तलाश कर रही थी, उन्हें अब मुझे तलाशने की कोई ज़रूरत नहीं थी। वो ख़ुद-ब-ख़ुद लौट आती थीं।
वक़्त का घोड़ा भी कुलाँचे मारकर दौड़ रहा था। बोर्ड परिक्षाओं का टाइम-टेबल आ गया और मैंने अपनी और से क़िस्मत को पूरी तैयारी करवा दी थी। पहला पेपर अँग्रेज़ी का ही था। मैंने क़िस्मत को सभी ज़रूरी सलाह दे दी। आख़िरकार सभी की परिक्षाएँ सम्पन्न हो गईं और मुझे ये जानकर बहुत अच्छा लगा कि क़िस्मत के सभी पेपर अच्छे हुए थे। जब परिणाम का दिन आया तो मेरा कलेजा मुँह में था। मैं उस दिन सभी अध्यापकों के साथ हमारे स्कूल के आईटी भवन में थी। कंप्यूटर स्क्रीन पर जैसे ही प्राचार्य महोदय ने क़िस्मत का नामंक लिखा; मेरा दिल धकधक कर रहा था। सर्कल घूमा और परिणाम मेरी आँखों के सामने था। वह पास हो गई थी। मैंने जैसे ही अँग्रेज़ी के कॉलम के सामने देखा तो उसमें उसके 64 अंक थे। मैं खुशी के मारे उछल पड़ी। ये परवाह किए बिना कि मेरे आसपास 15 लोग और भी हैं। लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं थी। क्योंकि आख़िरकार क़िस्मत की वजह से मैंने जीना सीख लिया था। मेरी ख़ुशियों को तलाश करने की प्रयास पूर्ण हो चुका था।