स्वयं मिट्टी में मिलकर
विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'स्वयं मिट्टी में मिलकर
क्षण-क्षण अपने में गलकर
मिटाता अपनी हस्ती को
त्याग कर निज परस्ती को
बीज जब प्रस्फुटित होता
जग उसे अंकुरित कहता
अदृश्य को भुला दिया जाता
दृश्य का गुणगान किया जाता
उसे मिटने में ना होती खीज
बीज स्वयं मिटकर देता बीज
आज एक निकला फिर अंकुर
दिशाएँ छेड़ रही हैं स्वर
प्रकृति का ये अनुपम व्यवहार
मिटकर बनना ही संसार...