हरे बबूल पर छाई अमरबेल ने, जब पास सूखे ठूँठ पर लौकी की बेल को नित हाथों बढते देखा तो, वो अन्दर ही अन्दर उससे ईर्ष्या करने लगी। एक दिन तो उससे रहा नहीं गया और कहने लगी- "अरे, ओ लौकी की बेल! तू मुझे दिखा-दिखा कर, क्या अपने चौड़े-चौड़े पत्तों को हिलाती है, फूलों को खिलाती है और लम्बी-लम्बी लौकी देने लगी है। तुझे पता भी है, तू कितने दिन रहेगी? वर्षा के मौसम के साथ-साथ तेरा भी पता नहीं चलेगा कहाँ गई...? मुझे देख, मैं वर्षा से पहले भी थी, आज भी हूँ, और आगे भी रहूँगी।"
अमरबेल की बात सुन, लौकी की बेल बोली – "बहन, तुम ठीक कहती हो, मेरी उम्र अधिक नहीं है पर मैं ख़ुश हूँ क्योंकि मैं अल्प जीवन में भी इस सूखे पेड़ को हरेपन का अहसास करा कर, उसे साहचर्य का सुख देकर अपने को धन्य जो मानती हूँ। अगर हम थोड़े जीवन में भी किसी को सुख व ख़ुशी दे जाएँ तो वो अल्प जीवन भी बहुत बड़ा लगने लगता है। एक तुम हो, अमरबेल! वास्तव में तुम्हारी उम्र मुझसे बहुत है पर, तुम्हारा जीवन, दूसरों पर आश्रित जीवन है तुम हमेशा दूसरों का शोषण कर अधिक जीवित रहती हो, तुम्हें जो भी पेड़ अपने सिर पर बैठा कर , तुम्हें मान देता है, जान देता है, तुम अपने जीवन को बचाने के प्रयास में उसी को पल-पल नष्ट करने पर तुली रहतीं हो। और एक दिन तुम उस हरे-भरे पेड़ को सूखा ठूँठ बना देती हो। फिर मेरे जैसी कोई बेल उसे पुनः जीवन तो नहीं दे पाती पर कुछ दिनों के लिए ही सही ,उसे हरेपन का अहसास तो करा ही देती है।
लौकी की बेल की बात सुनकर, अमरबेल निरुत्तर हो गई, उसे अपनी 'औकात' का पता चल चुका था ...