मास्टर जी
विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
सड़क के दोनों ओर पेड़ों की कतारे थी। पेड़ों की क़तारों से सड़क की शोभा को चार चाँद लगे हुये थे। सैकड़ों की संख्या में हर आयुवर्ग के लोग प्रभात-भ्रमण हेतु उस ओर खिंचे चले आते थे। पिछले कुछ दिनों से एक शिक्षक भी हमारे संग घूमने आने लगे थे वो अभी-अभी स्थानांतरित होकर इस शहर में आये थे। अचानक एक सुबह हम सब को रोक कर शिक्षक बोले- "आप सब इन नीमों को देखकर क्या सोचते हो? ज़रा बताइये।" हम में से एक बोले, "सोचना क्या? हम सब घूमने आते हैं और रोज़ इनसे दातुन तोड़ कर दातुन करते हैं, बताया भी गया है कि नीम की दातुन स्वास्थ्य के लिए अच्छी होती है।" "क्या आपने अन्य पेड़ों की तुलना में इन नीम के पेड़ों की दशा पर भी ध्यान दिया," शिक्षक ने कहा। "ये नीम के पेड़ कक्षा में कुपोषण के शिकार बच्चों की भाँति सबसे अलग-अलग से दिखाई नहीँ दे रहे? इनकी इस दशा के दायी क्या हम सब नहीं! बताइये, आधे शहर की दातुन की ज़िम्मेदारी क्या ये निभा पायेंगे?" हम सब उनकी बात सुनकर चकित रह गये। हममें से एक बुज़ुर्ग ने कहा- "मास्टरजी, इस तरह तो हमने सोचा ही नहीं, लेकिन देर आयद-दुरुस्त आयद अब हम दातुन नही तोड़ेंगे साथ ही अन्य को भी समझायेंगे।" कुछ दिनों बाद गर्मियों की छुट्टी बिताने मास्टरजी अपने गाँव चले गये। आज एक जुलाई है। मास्टर जी, अपने गाँव से छुट्टियाँ बिताकर सुबह वाली बस से शहर आ रहे हैं। जैसे-जैसे शहर क़रीब आने लगा, उनकी आँखें कुछ अधीर होने लगीं। अचानक बस की खिड़की से क्या देखते हैं कि उन नीमों की डालियों पर नव कोंपलें हिल-हिल कर आने जाने वालों का अभिवादन कर रहीं थीं, अब वो कुपोषित बच्चों जैसे नहीं लग रहे थे। ये दृश्य देखकर मास्टर जी के चेहरे पर मुस्कान बिखर गयी। इस रहस्य को बस में अन्य कोई भी नही समझ पाया। |