बारात के घोड़े...
विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'आजकल बारात के घोड़े पर बैठना बड़ा कठिन हो गया है, इसका मतलब ये भी नहीं है कि पहले आसान था, फिर भी आज की तुलना में पहले ले-देकर या फिर कहें कि बिना ज़्यादा परेशानी के ये सौभाग्य मिल ही जाया करता था। माँ- बाप अपने गदहे को घोड़े पर बिठवा ही दिया करते थे, परन्तु अब तो समय के बदलाव के साथ-साथ बारात के घोड़ों का समय भी लद गया। अगर बारात के घोड़े पर बैठकर कोई अपनी मंज़िल पाने की सोचता भी है तो तब तक कोई दूसरा, रेस के घोड़े पर बैठकर मंज़िल उससे पहले हथिया लेता है और उस बारात के घोड़े के सवार को मंज़िल प्राप्ति से पहले ही खाली हाथ, निराश घर वापिस लौट आना पड़ता है।
वैसे आज, बारात के घोड़ों पर बैठने बालों की भरमार है परन्तु उनको ये सुअवसर मिल ही नहीं रहा। इसका एक कारण लड़कियों का अनुपात है; लड़कों की तुलना मे कम हो गया है। क्यों हो गया है?.... इसे हम सब जानते हैं।
मेरा एक बचपन का मित्र है वो अब तक चालीस बसंत पार कर चुका है पर उसके जीवन में बसंत आई ही नहीं। हाँ, वो कहता है कि जब मैं छोटा था तब, अपनी माँ के साथ किसी रिश्तेदार के यहाँ शादी में गया था, वहाँ मुझे कुछ पल के लिए दूल्हे के साथ बारात के घोड़े पर बैठने का अवसर मिला। उसके बाद, आज तक नहीं ...
सच तो ये है कि आजकल राजनीति हो या सामाजिक वैवाहिक कार्यक्रम, दोनों में बारात के घोड़ों का चलन लगभग ख़त्म सा हो चला है। अब तो,लड़की वाले भी, लड़कों में रेस के घोड़े को देखना पसंद करते हैं, जैसे राजनीति वाले अपने उम्मीदवारों में। जिससे वह दूसरों से पहले पहुँच कर जीत का वरण कर सके। परन्तु आजकल कुछ ऐसे उदाहरण भी देखने में आ रहे हैं, जिसमें वे महाशय, जो दोनों प्रकार के घोड़ों से दूरी बनाए हुए हैं - प्रथम कारण बारात के घोड़ों पर सवार को मंज़िल प्राप्त होने की शंका, दूसरे रेस के घोड़े पर बैठने में, गिरने का भय क्योंकि वह घोड़ा अधिक चंचल होता है। इन कारणों से वे, दोनों से दूरी बनाए हुए हैं। और जाने-अनजाने भारत सरकार के 'परिवार-नियोजन कार्यक्रम' में वो सहयोग भी प्रदान कर रहे हैं। रही बेचारे बारात के घोड़ों की बात उनका स्वास्थ्य आजकल दिन-प्रतिदिन गिरने लगा है क्योंकि पहले तो उन्हें वैवाहिक कार्यक्रमों में चने की दाल खाने को मिल ही जाया करती थी, अब वो बात कहाँ!! बेचारे बारात के घोड़े...