सौंपता हूँ तुम्हें
सत्येंद्र कुमार मिश्र ’शरत्’भटक चुका बहुत,
हे प्रभु मैं 
अपने आप को 
सौंपता हूँ तुम्हें,
अपनी मृत्यु के पहले ही।
चारों तरफ़ से 
मुझे  घेरे  हैं 
अहंकार... ईर्ष्या... द्वेष.. घृणा... काम...
क्रोध का 
मैंने 
अपने चारों तरफ़ 
जाल सा बुन लिया है।
मैं पेड़ होना चाहता हूँ,
ढेला मारे 
मेरे फलों को तोड़ कर 
कोई भी चला जाए।
मैं नदी होना चाहता
बहता रहूँ अविरल।
खाता रहूँ 
पत्थरों की ठोकर।
मैं हवा होना चाहता हूँ
तूफ़ान नहीं।
मैं हिमालय होना चाहता हूँ
खड़ा रहूँ ,
अडिग... अचल... स्थिर।
मैं बादल होना चाहता हूँ,
कीड़ा- मकोड़ा होना चाहता हूँ ,
पशु होना चाहता हूँ,
पर मनुष्य नहीं।
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