हिन्दी काव्य में राष्ट्रीय चेतना की परम्परा एवं स्वरूप

01-04-2025

हिन्दी काव्य में राष्ट्रीय चेतना की परम्परा एवं स्वरूप

सत्येंद्र कुमार मिश्र ’शरत्‌’ (अंक: 274, अप्रैल प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

वैदिक युग से राष्ट्र के प्रति प्रेम कवियों का प्रिय विषय रहा है। नव रसों में ‘वीर रस एवं उत्साह’’ नामक स्थायी भाव को प्रमुखता से स्थान मिला। कवि की लेखनी में यदि अपने देश के प्रति प्रेम और गौरव ही न झलकता हो तो उसका काव्य करना ही निरर्थक है। प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर ने “क़लम आज उनकी जय बोल” कविता में राष्ट्रीय अस्मिता के लिए बलिदान हो जाने वाले देशभक्त वीरों के लिए आह्वान करते हुए लिखा है:

“क़लम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियाँ बारी-बारी
छिटकाई जिनने चिंगारी, 
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर 
लिए बिना गर्दन का मोल। 
क़लम, आज उनकी जय बोल।”

कवि की लेखनी राष्ट्रीय अस्तित्व के लिए शहीद हो जाने वाले वीर शहीदों की जय-जयकार करती है। ऐसे शहीद जिन्होंने अपने प्राणों का बलिदान हँसते-हँसते कर दिया। 

संपूर्ण हिन्दी साहित्य के इतिहास में राष्ट्रीय चेतना नाना रूपों में देखने को मिलती है। आदिकालीन रासो काव्य से लेकर के आधुनिक काल तक राष्ट्रीय काव्य का स्वरूप अलग-अलग परिस्थितियों के अनुरूप परिलक्षित होता है। चंद्रवरदाई ने पृथ्वीराज रासो महाकाव्य में, जगनिक ने परमाल रासो में तत्कालीन राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुकूल वीर रस से परिपूर्ण काव्य का सृजन किया। परमाल रासो (आल्हखण्ड) की यह  काव्य पंक्तियाँ मरणासन्न व्यक्ति में भी जान डाल दें:

“बारह बरस लै कूकर जीवै, अरु तेरह लै जियै सियार। 
बरस अट्ठारह छत्रिय जीवै आगे जीवै को धिक्कार॥”

भक्तिकाल में राष्ट्रीय काव्य समाज सुधार, धार्मिक आडंबर के विरोध के रूप में जाना जाता है। भक्तिकाल के कवियों ने पूरे देश को एक सूत्र में पिरो दिया। दक्षिण भारत से लेकर उत्तर भारत, पूर्वी भारत से लेकर पश्चिमी भारत सर्वत्र भक्तिरस की चर्चा हो रही थी। गोस्वामी तुलसीदास का महान प्रबंधकाव्य ‘रामचरितमानस' संपूर्ण भारतीय जनमानस के कंठ का हार बन गया। रावण की आसुरी शक्तियों को इस्लामिक आक्रमण के रूप में देखा गया। तुलसीदास ने जनता के मार्मिक, प्रताड़ित हृदय पर मरहम लगने का कार्य किया:

“दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा। 
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥”

रीतिकाल में वैसे तो शृंगार रस, नायिका भेद, लक्षण ग्रंथों का बोलबाला था लेकिन, भूषण जैसे कवि ने वीर रस को लेकर ग्रंथों की रचना की। भूषण ने वीर छत्रपति शिवाजी और छत्रसाल को अपने काव्य के लिए नायक बनाकर काव्य सृजन किया। शिवाजी एवं छत्रसाल ने मुग़लों अधीनता कभी स्वीकार नहीं की सच्चे मायनों में यह दोनों राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक थे। 

भूषण ने लिखा है कि:

“सिवा को बखानौं कि बखानौं छत्रसाल को।” 

रीति काल की घोर शृंगारिक कविता के समय में भूषण जैसे कवि ने वीररस का मुख्य भेद युद्धवीर को प्रमुखता प्रदान करके अपने कवि कर्म को सार्थक कर दिया। गुरु गोविंद सिंह सिक्ख धर्म के दसवें एवं अंतिम गुरु थे। वह एक वीर योद्धा के साथ-साथ बहुत अच्छे कवि भी थे। वह आजीवन मुग़लों के ख़िलाफ़ लड़ते रहे। गुरु गोविंद सिंह ने ‘चंडीचरित्र’ काव्य में सर्वत्र राष्ट्रीय चेतना की बात की। उन्होंने लिखा, देश के लिए मर मिटना वीर के लिए गौरव की बात है। 

आधुनिककाल में राष्ट्रीय चेतना स्वतंत्रता की पुकार के रूप में देखने को मिलती है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, मैथिली शरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, रामधारी सिंह दिनकर, जयशंकर प्रसाद, निराला, आदि अनेक कवियों की कविताओं में अपनी मातृभूमि के लिए छटपटाहट देखी जा सकती है। 

भारतेंदु हरिश्चन्द्र राष्ट्रीय चेतना के प्रबल उन्नायकों में थे। उन्होंने राष्ट्रीय गीत गाये और जन-मानस में राष्ट्रीय भावना जगायी। इसलिए उनके नाम से इस युग को अभिहित करना सर्वथा युक्तियुक्त है। भारतेन्दु का काल राजनीतिक दृष्टि से नवजागरण का काल कहा जा सकता है, क्योंकि इस काल में जिस राजनीतिक भावना का उद्भव हुआ, उसका भारतीय राष्ट्रीयता के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारतेंदु युग में राष्ट्रीय चेतना के स्वरूप को अनेक रूपों में व्यस्त किया गया। परतंत्र भारत में जहाँ बोलने की आज़ादी नहीं थी वहाँ भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने भारतीय जनता को अपनी भाषा-बोली में पूरे आत्मविश्वास के साथ अंगीकृत करने को कहा:

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, 
बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल”

द्विवेदी युग में मैथिली शरण गुप्त ने 1914 ईसवी में प्रकाशित ‘भारत-भारती’ रचना में राष्ट्रीय गौरव को पुनः स्थापित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने प्राचीनता के आलोक में वर्तमान समस्याओं का हल खोजने की कोशिश की है। जिसमें वह पूरी तरह से सफल भी हुए हैं। इसी रचना के आधार पर महात्मा गाँधी ने मैथिली शरण गुप्त को राष्ट्रकवि की उपाधि प्रदान की। परतंत्रता के दौर कवि अतीत को यादकर जनता में राष्ट्रीय चेतना का प्रकाश फैलाता है। प्राचीन भारत के गौरवशाली इतिहास को यादकर कवि की लेखनी चीत्कार उठती है:

“हम कौन थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी, 
आओ, विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी। 
यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं। 
हम कौन थे, इस ज्ञान को, फिर भी अधूरा है नहीं॥”

छायावाद में राष्ट्रीय चेतना अपने शिखर पर थी। भारतीय राजनीति में यह युग ‘गाँधीयुग’ के नाम से जाना जाता है। महात्मा गाँधी के दिखाये रास्ते पर पूरा देश चल रहा था। हिन्दी साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा। छायावाद के कवियों ने राष्ट्रीय चेतना को नवीन रूप में काव्य का विषय बनाया। छायावाद के कवि परतंत्रता के बंधन को स्वीकार नहीं कर सके। उनके हृदय में स्वतंत्रता के लिए छटपटाहट और तड़प है। जयशंकर प्रसाद ने ‘चंद्रगुप्त’ नाटक में प्रमुख पात्र ‘अलका’ से कहलवाया है:

“हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती-
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती॥”

छायावाद के कवियों को किसी का डर नहीं है‌। वह ब्रिटिश सत्ता से आँख से आँख मिलाकर राष्ट्रीयता के गीत गाते हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, ने राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत अनेक कविताओं की रचना की। वह वीणावादिनी से यही वरदान माँगते हैं कि, मेरे प्रिय भारत देश की जनता को स्वतंत्रता रूपी नव अमृत मंत्र दे दो। निराला द्वारा रचित भारत माता की वंदना कविता प्रसिद्ध है:

“भारती जय, विजयकरे! 
कनक-शस्य-कमलधरे! 
लंका पदतल शतदल
गर्जितोर्मि सागर-जल, 
धोता-शुचि चरण युगल
स्तव कर बहु-अर्थ-भरे।” 

अंग्रेज़ी शासनकाल में स्वतंत्रता के लिए लिखना आग से खिलवाड़ करना था। प्रेमचंद की ‘सोज़ेवतन’ रचना को अंग्रेज़ी सत्ता ने ज़ब्त कर लिया था। छायावादी कवियों की लेखनी आग उगल रही थी। उन्हें जैसे किसी का डर ही नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि छायावादी कवियों ने सिर पर कफ़न बाँध लिया हो। सुमित्रानंदन पंत ने इसी समय प्रसिद्ध कविता ‘भारतमाता’ लिखा। भारत माता गाँवों में निवास करने वाली लाखों करोड़ों अशिक्षित, पददलित, शोषित, भूखी, नंगी जनता के हृदय में निवास करती हैं। भारतमाता का शस्य-श्यामल वस्त्र मैला हो गया है। वह दीन-हीन हो गयी हैं। जिस प्रकार ‘राहु’ नामक असुर ने चंद्रमा को ग्रस लिया है, वैसे ही अंग्रेज़ी शासन स्वर्ण सुसज्जित भारतमाता को पंकिल कर दिया है:

“तीस कोटि संतान नग्न तन, 
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन, 
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन, 
नत मस्तक
तरु तल निवासिनी! 
स्वर्ण शस्य पर-पदतल लुंठित, 
धरती सा सहिष्णु मन कुंठित, 
क्रन्दन कंपित अधर मौन स्मित, 
राहु ग्रसित
शरदेन्दु हासिनी।”

छायावादी कविता केवल प्रेम, कल्पना रोमांस के लिए ही नहीं थी, वरन्‌ वह क्रांति और ध्वंस की कविता थी। डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है कि “एक ओर तो इन कवियों ने भारत की आंतरिक विसंगतियों और विषमताओं को दूर करने के लिए देश का आह्वान किया और दूसरी ओर जनता को विदेशी शासन से मुक्ति पाने के लिए स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़ने की प्रेरणा दी। माखनलाल चतुर्वेदी रामनरेश त्रिपाठी, बालकृष्ण शर्मा नवीन और सुभद्रा कुमारी चौहान ने न केवल राष्ट्र प्रेम को ही मुखरित नहीं किया, अपितु उन्होंने स्वयं देश की आज़ादी की लड़ाई में भाग के लिया। फलस्वरूप उनकी देशप्रेम की कविताओं में अनुभूति की सच्चाई और आवेश दिखायी देता है।” 

माखनलाल चतुर्वेदी क्रांतिकारियों के हाथों की हथकड़ियों को गहना कहते हैं। वह लिखते हैं कि, ब्रिटिश राज के अहंकार का कुआँ एक दिन सूख जायेगा। भारत की जनता ब्रिटिश सत्ता को उखाड़कर फेंक देगी। 

“क्या? देख न सकती ज़ंजीरों का गहना? 
हथकड़ियाँ क्यों? यह ब्रिटिश राज्य का गहना।” 

राष्ट्रीय चेतना के काव्य में महिलायें किसी से पीछे नहीं थी। वह पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही थी। सुभद्राकुमारी चौहान की कविताएँ क्रांतिकारियों का स्वर बन गयी। ‘वीरों का कैसा हो वसंत’, ‘झांसी की रानी’, ‘जलियांवाला बाग में बसंत’ आदि कविताओं ने जनता के अंतस् में उत्साह का संचार कर दिया:

“सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृगुटी तानी थी, 
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी, 
गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी, 
दूर फिरंगी को करने को सबने मन में ठानी थी। 
चमक उठी सन सत्तावन की वह तलवार पुरानी थी।”

रामस्वरूप चतुर्वेदी ने छायावाद के कवियों का मूल्यांकन 'पुनर्जागरण काव्य लेखन' के रूप में किया है। जिसे वह ‘शक्तिकाव्य’ के रूप में देखते हैं। एक प्रकार से वह राष्ट्रीय चेतना के महत्त्व को कम करके नहीं देखना चाहते। वह शक्तिकाव्य को राष्ट्रीय चेतना के समानांतर मानते हैं। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है कि “छायावादी काव्य में शक्ति के आवाहन का एक और रूप इस युग के जागरण गीतों में मिलता है। पुनर्जागरण चेतना की बड़ी सूक्ष्म और प्रीतिकर अभिव्यक्ति इन गीतों में हुई है।” 

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आदिकाल से ही कवियों ने अपनी कविताओं में राष्ट्रीय चेतना को व्यापक स्तर पर देखा। प्रत्येक काल में राष्ट्रीय चेतना के स्वरूप में बदलाव आते रहे, लेकिन उसकी मूल भावना वही रही। छायावाद में राष्ट्रीय चेतना स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ जन-जन के मानस पटल में छा गयी। यहाँ आकर राष्ट्रीय चेतना अपने व्यापक स्वरूप में देखने को मिलती है। 

डॉ. सत्येन्द्र कुमार
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर 
हिन्दी विभाग
डी.एन.पी.जी. कॉलेज

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:

  1. रामधारी सिंह दिनकर, शहीद स्तवन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली

  2. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज। 

  3. योगेन्द्र प्रताप सिंह (संपादक) उत्तरकांड, लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद

  4. मैथिलशरण गुप्त, भारत भारती, साहित्य सदन, झांसी, 43 वाँ संस्करण 2007

  5. सं. डॉ. नगेन्द्र, डॉ. हरदयाल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली, 46 वाँ संस्करण:2014

  6. जयशंकर प्रसाद, चंद्रगुप्त, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद

  7. सुभद्राकुमारी चौहन, मुकुल, ओझाबन्धु आश्रम, इलाहाबाद

  8. रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिन्दी साहित्य एवं संवेदना का स्वरूप, लोकभारती प्रकाशन प्रयागराज। 

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