समय ही सर्वोपरि
डॉ. नवीन दवे मनावतअक्सर एक शख़्स
मेरे सामने करता
अभिवादन!
मंद स्मित हो बोलता
लाजवाब!
और संवेदना के आँसू
बहाता
कि तुम वाक़ई में मर्म के कवि हो
मैं उसकी हर बात
आत्मसम्मान समझता
और अपने अनसुलझे रहस्यों
की आत्महत्या कर देता
वही शख़्स
इस बार मेरे सामने नहीं
मेरे विपरीत समय के साथ
करता वार्तालाप कि
तुम निर्दयी हो!
तुम संवेदनहीन हो
कैसा लाजवाब?
नहीं हो क़ाबिल
अभिवादन के!
मैं दोनों के विश्लेषण में
खो गया
और
निकाला एक रहस्य
तब पाया समय ही
सर्वोपरि है
कवि उसकी लीक है...