कुतरन ज़िंदगी की
डॉ. नवीन दवे मनावतधीरे-धीरे समय के पड़ाव पर
कुतरती जाती है ज़िंदगी
जिसे हम देख नहीं पाते
अंधाधुंध भागदौड़ में
कभी रिश्तों में कुतरन
तो कभी स्वभाव में
जिसे हम समझ बैठे
संपूर्ण बंधन!
वस्तुत: वह कुतरन से गुज़रते
अहसास हैं
जो नहीं कराते यथार्थ के दर्शन!
हम टूटी और रूठी शक्लों को भी
आईने में दिखाना चाहते हैं
वो आईना यथार्थ में
टूट चुका है
परिवेश की जकड़न से
जिसमें हमे दिखते हैं
एक साथ हज़ार चेहरें
जिसको पहचाना आज मुश्किल हो गया है
ज़िंदगी की कुतरन को
प्राप्त नहीं किया जा सकता
पर रिश्तों की परख
समन्वय की सिलाई कर
व्यवस्थित आकार दे सकते हैं
बची हुई ज़िंदगी को
जिसको पहचान सकेगी
नवीन पीढ़ियाँ . . .