राहत दे सुखभरी!
डॉ. नवीन दवे मनावतबारिश हो रही है ख़ूब!
घर में,
गाँव में,
बाहर, भीतर तक!
कहीं भर गये ताल
तो कहैं हैं सूखे
जैसे वियोगी की आँखें
जो नीरस रो रही हैं!
वे ताल हँस रहे हैं
कह रहे हैं बरसो, ख़ूब बरसो
पर झूमकर नहीं,
चूमकर एक संवेदना
एक मर्म
बारिश हो रही है
मेरे भीतर
पर एक बूँद को तरस रहा हूँ
जो राहत दे सुखभरी