रोटी, कपड़ा और मकान
नवल किशोर कुमाररोटी
कुछ बेचैन लोग,
क्षुधाग्नि की ज्वाला में जलकर भी,
ठंढी आहें भरते हैं,
इस इत्मिनान के साथ,
चलो, कल की न सही,
आज का इंतज़ाम तो हो ही गया।
कपड़ा
कुछ बेचैन लोग,
स्वयं एक फटी लंगोट पहनकर भी,
अपनी नवयौवना बेटी को इज़्ज़त के साथ,
ढंकना चाहते हैं,
इस विश्वास के साथ,
चलो, आज न कल ही सही,
इज़्ज़त सलामत रही, तो
किसी न किसी खूँटे से बँध ही जायेगी।
मकान
कुछ बेचैन लोग,
दो गज जमीन और,
एक अंगुल आसमान के लिए,
आजीवन तरसते हैं,
इस विश्वास के साथ,
चलो, मरने के बाद ही सही,
कब्र में जगह मिले ना मिले,
कुछ बेचैनों के काम तो आ ही जायेंगे।
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