अब भी मेरे हो तुम
नवल किशोर कुमारपूस की रात से,
बसंत की सुनहरी छाँव तक,
जेठ की दोपहरी से,
बरसात की रात तक,
मेरा साथ निभाने वाले मेरे मन,
अब भी मेरे हो तुम।
तब भी जब मेरे पैर,
बाढ़ की धार में उखड़ रहे थे,
उस वक्त भी जब मेरा धैर्य,
उड़नखटोलों के साथ दौड़ रहा था,
भूख की वेदना के चरमोत्कर्ष तक,
मेरा साथ निभाने वाले मेरे मन,
अब भी मेरे हो तुम।
कभी-कभी यूँ लगा जैसे,
अपनों की तरह,
तुमने भी मुझे,
मझधार में तन्हा छोड़ दिया,
लेकिन तब मैंने जाना,
मैं गलत राह पर था,
हर पल,
हर बार मेरा हाथ पकड़,
मुझे नयी राह दिखाने वाले मेरे मन,
अब भी मेरे हो तुम।
जीवन पथ के हर मुकाम पर,
जब मेरे हौसलों ने,
मेरा साथ देने से इनकार किया,
और उस वक्त भी जब मैं,
अपना सर्वस्व गँवा कर,
स्वार्थ में जन्मांध बन कर,
लोगों का खून चूस रहा था,
मेरे हर कर्म में,
मेरा साथ निभाने वाले मेरे मन,
अब भी मेरे हो तुम।
सूरज की पहली किरण से लेकर,
चंद्रमा के पलायन तक,
जन्म से लेकर,
शवशैया पर आरोहण तक,
एक अदृश्य परछाई बन,
मेरा साथ निभाने वाले मेरे मन,
अब भी मेरे हो तुम।
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