प्रेमाँगन
मोतीलाल दासजब से
समझने लगा हूँ कुछ
बाहर का थोड़ा थोड़ा
और अपने भीतर का सब कुछ
तब से
शब्दों में जीने का प्रेम
और देहयोग का प्रेम
बहुत कुछ रोपता है भीतर
उस अवस्था में
शायद नदी की तरह
दोनों पाटों में
बालू उलीचता हूँ
और बचा लेता हूँ
पाटों के बीच
अपनी संवेदनाओं को भरपूर
एक आँख होती है
आकाश के परे जाने को आतुर
और देह होती है व्याकुल
आस्था और विश्वास के तरंगों में
कि आँखों में सतरंगे सपने तैरे
और चिहुँक उठे स्मृति
थोड़ा भीतर
थोड़ा बाहर भी
ऐसे में ही शायद
प्राणवान होती हो देह
और बसती है कुछ भीतर
जिसे प्रेम कहते हैं