मानवता
मोतीलाल दासकभी मानवता
बहाती थी नदियाँ
उगाती थी फ़सलें
बिखराती थी किरणें
खिलाती थी फूल
सँवारती थी फूल
बचाती थी पेड़
पोंछती थी आँसू
और वह
बहाती थी पसीना
दमकाती थी आग
सुलगाती थी आंदोलन
सुनाती थी लोरी
बुनते थे सपने
किन्तु आज मानवता
विवश क्यों है हाशिए पर
अपनी अस्मिता को ढूँढ़ता हुआ
कहीं ऐसा तो नहीं
कि भागदौड़ के खेल में
उन्होंने मैच फ़िक्सिंग की हो
शायद ऐसा ही हो
तभी तो
हमारी कविताओं में भी
वह ढूँढ़ने से भी नहीं मिलती।