प्रेम-ज्वाला
गौरीशंकर वैश्य ‘विनम्र’
क़दम रुक गए क्यों, थिरकते-थिरकते।
कहाँ आ गए हम, बहकते-बहकते।
कलियों ने हँसकर, है सौरभ लुटाया
कहा है बहुत कुछ, महकते-महकते।
कभी बाँसुरी-स्वर लुभाता हृदय को
कभी भाव विह्वल, सिसकते-सिसकते।
प्रकृति की नहीं, प्रेम-ज्वाला बुझी है
युगों हो गए हैं, दहकते-दहकते।
‘जियो और जीने दो’, संदेश अनुपम
सुनाया विहग ने, चहकते-चहकते।