कटु सत्य
गौरीशंकर वैश्य ‘विनम्र’
मैंने विरुद के गीत सुनाए नहीं कभी।
सम्मान इसलिए ही पाए नहीं कभी।
मैं जानता हूँ, किसने-कब पथ में बिछाए शूल
आगे बढ़े पग, लौटकर आए नहीं कभी।
प्रश्नों के उत्तर दे दिए ज्यों ही तपाक से
कटु सत्य-कथन, किसी को भाए नहीं कभी।
थे आसपास, कितने ही उपवन खिले हुए
मैंने निहारा, पुष्प चुराए नहीं कभी।
मैंने जलाए दीप, अँधेरों के द्वीप में
हाँ, झूठमूठ, जुगनू दिखाए नहीं कभी।
सरिता में आचमन किया, स्नान कर लिया
अपशिष्ट-द्रव्य उसमें बहाए नहीं कभी।
श्रम से मिला जो, उसी को स्वीकार कर लिया
जीवन में मधुर स्वप्न सजाए नहीं कभी।