प्रखर पत्रकार एवं उत्कट देशभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी

01-11-2022

प्रखर पत्रकार एवं उत्कट देशभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी

सुरेश बाबू मिश्रा (अंक: 216, नवम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

भारत माता को परतंत्रता की बेड़ियों से आज़ाद कराने के लिए लड़े गये स्वतंत्रता संग्राम में जिन पत्रकारों ने अपनी लेखनी को हथियार बनाया उनमें गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम सबसे अग्रणी है। उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता में क्रान्ति का रंग भरा और देश की आज़ादी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके लेख नौजवानों के दिलों में क्रान्ति की ज्वाला भर देते थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे एक प्रखर पत्रकार सच्चे देशभक्त और निष्पक्ष समाजसेवी थे। वे राष्ट्रीय एकता की जीती जागती मिसाल थे। 

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद में अपनी ननिहाल में हुआ था। उनके पिता जयनारायण ग्वालियर रियासत के मुंगावली में एक स्कूल में अध्यापक थे। उनकी माता का नाम गोमती देवी था। वे एक धर्मपरायण महिला थीं। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ इस परिवार का जीवन दर्शन था। रामचरित मानस नियमित रूप से घर में बाँची जाती थी। ‘सियाराम महिं सब जग जानी’ तथा ‘परहित सरस धर्म नहिं भाई’ का संस्कार माँ के दूध के साथ गणेश शंकर की रग-रग में समा जाना स्वाभाविक ही था। बचपन में ही विवाह बंधन में बँध जाने के कारण उन्हें गृहस्थी की ज़िम्मेदारी भी उठानी पड़ी। 

गणेश शंकर की प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू में हुई। हाईस्कूल पास करने के बाद ही गणेश शंकर ग्वालियर छोड़कर कानपुर आ गए। उन्होंने कानपुर के एक बैंक में नौकरी कर ली। यह सन् 1901 की बात है। उस समय देश की आज़ादी की लड़ाई ज़ोरों पर चल रही थी। उन दिनों हिन्दी के अख़बार ‘कर्मयोगी’ की बड़ी धूम थी। इस अख़बार के क्रान्तिकारी लेखों ने अँग्रेज़ों की नींद हराम कर रखी थी। गणेश शंकर का रुझान पत्रकारिता में बढ़ गया। वे कर्मयोगी अख़बार के प्रतिनिधि बन गए। इस अख़बार के पढ़ने वालों पर अँग्रेज़ों ने बड़े ज़ुल्म किए। गणेश को कर्मयोगी से जुड़ने के आरोप में नौकरी से निकाल दिया गया। 

गणेश शंकर के सीने में आज़ादी की आग सुलग चुकी थी। उन्होंने तय किया कि अँग्रेज़ अफ़सरों के ख़िलाफ़ कानपुर से ही एक अख़बार निकालेंगे। अपने निश्चय के अनुसार उन्होंने कानपुर से ‘प्रताप’ नामक अख़बार प्रारम्भ किया। शीघ्र ही सारे देश में प्रताप की धूम मच गई। इस अख़बार में प्रकाशित गणेश शंकर के लेखों ने लोगों के हृदय में आज़ादी की ज्वाला भर दी। 

निर्भीक पत्रकार होने के साथ ही गणेश शंकर विद्यार्थी में देश-प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। वे भारत माँ की दासता के जुए को उतार फेंकना चाहतेे थे। इसलिए ‘प्रताप’ का कार्यालय क्रान्तिकारियों का प्रमुख केन्द्र बन गया था। क्रान्तिकारियों के लिए गणेश शंकर के मन में बड़ा स्नेह था। 

सरदार भगत सिंह, गणेश शंकर का बहुत आदर करते थे, और उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। चन्द्रशेखर आज़ाद, वटुकेश्वर दत्त तथा राजकुमार सिंह जैसे प्रखर क्रान्तिकारी गणेश शंकर के विशेष स्नेह पात्र थे। 

सन् 1913 से लेकर सन् 1930 तक देश की आज़ादी के लिए चलाए गए सभी आन्दोलनों को गणेश शंकर ने अपने पत्र ‘प्रताप’ में प्रमुखता से छापा। और इन आन्दोलनों को जन-जन तक पहुँचाने में सक्रिय योगदान दिया। बहुत दिनों तक ‘प्रताप’ गाँधी जी का प्रमुख समाचार पत्र रहा। 

बहुत कम लोग जानते होंगे कि मुंशी प्रेमचन्द को हिन्दी में लेखन कार्य की प्रेरणा गणेश शंकर ने ही दी थी। गणेश शंकर साम्प्रदायिक एकता के कट्टर समर्थक थे। वे देशवासियों से हमेशा एक ही बात कहते थे, “किसी तरह का मज़हबी पक्षपात हृदय में पैदा न हो। राष्ट्रीय एकता और साम्प्रदायिक सद्भाव ही देश की उन्नति का मूलमन्त्र है।” 

गणेश शंकर ने हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव पैदा करने और एकता बनाए रखने के लिए ‘हिन्दुस्तानी बिरादरी सभा’ बनाई। गणेश शंकर दोनों सम्प्रदायों के मध्य रोटी-बेटी के रिश्ते के भी समर्थक थे। बेटी का रिश्ता तो उस समय लोगों के गले नहीं उतरा, मगर रोटी को ज़रूर महत्त्व मिल गया। बिरादरी की सभा जिसके घर भी होती वहाँ जलपान में चना अवश्य दिया जाता। हिन्दुस्तानी बिरादरी सभा का सर्वत्र बड़ा स्वागत हुआ। इससे अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हिन्दू-मुस्लिम एकता को बड़ा बल मिला। अँग्रेज़ सरकार की नीति यह थी कि हिन्दू और मुसलमानों को आपस में लड़ा दिया जाए इसलिए वे हिन्दुस्तानी बिरादरी सभा के बढ़ते प्रभाव के कारण बौखला उठे। 

23 मार्च 1931 को अँग्रेज़ सरकार ने असेम्बली बम कांड के केस में शहीदे आज़म भगत सिंह को फाँसी पर लटका दिया। पूरे देश में इस घटना का तीव्र विरोध हुआ। कानपुर की जनता भी उत्तेजित हो उठी। गणेश शंकर की अध्यक्षता में इस घटना का विरोध करने के लिए कानपुर में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया। इसमें बड़ी संख्या में हिन्दू और मुसलमान दोनों ने भाग लिया। वह राजनैतिक सभा बड़ी सफल रही। सभा की सफलता ने अँग्रेज़ सरकार की रातों की नींद हराम कर दी। अँग्रेज़ सरकार के प्रति जनता के बढ़ते विद्रोह को विफल करने के लिए अँग्रेज़ोें ने एक कुटिल चाल चली। अपने गुर्गों द्वारा उन्होंने कानपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा करा दिया। 

सारे कानपुर में हिंसा, क़त्लेआम, लूट-खसोट तथा आगजनी का तांडव शुरू हो गया। सदियों से साथ-साथ रहते आए लोग अँग्रेज़ों की कुटिल चाल के कारण एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गए। अँग्रेज़ अफ़सर हाथ पर हाथ रखे तमाशा देख रहे थे और अपनी सफलता पर मन ही मन ख़ुश हो रहे थे। 

ऐसे में गणेश शंकर कैसे चुप बैठे रहते। बीमारी की हालत में ही वह लोगों को समझाने के लिए निकल पड़े। मूलगंज, खान बाज़ार, जनरल गंज, मेस्टन रोड, चटाई मोहाल सब जगह हिंसा का तांडव था। गणेश शंकर दंगाग्रस्त इलाक़ों में घूम-घूम कर हिन्दू-मुसलमान दोनों सम्प्रदाय के लोगों को समझा-बुझाकर शांत कर रहे थे। उन्होंने सैंकड़ों मुस्लिम परिवारों की रक्षा अपनी जान की बाज़ी लगाकर की। दंगे के कारण इधर-उधर फँसे मुस्लिम परिवारों को उन्होंने सुरक्षित उनके घरों तक पहुँचाया। गणेश शंकर ने अपने कार्यों से मुसलमानों के दिलों में अपनी जगह बना ली। मुसलमान उन्हें अपना सच्चा हमदर्द मानने लगे। 24 मार्च का पूरा दिन दंगाइयों को समझाने-बुझाने में बीता। थक कर वे बुरी तरह चूर हो चुके। अपने प्राणों की परवाह न करके किसी तरह रात के ग्यारह बजे वे घर लौटे। 

25 मार्च 1931 को गणेश शंकर को सूचना मिली कि चावल मंडी में कुछ मुसलमान परिवार फँसे पड़े हैं। गणेश शंकर अपने प्राणों की परवाह न करके उन असहाय लोगों को बचाने के लिए चल दिए। वे बंगाली मोहल्ला से सीधे चौबे गोला मोहल्ला गए। इसके आस-पास का इलाक़ा मुसलमानों का था। वहाँ किसी हिन्दू को जाने का साहस नहीं पड़ रहा था। मगर गणेश शंकर निर्भीक होकर आगे बढ़ने लगे। हिन्दुओं ने उन्हें रोकना भी चाहा मगर वे रुके नहीं। 

किसी ने टोका, “आप कहाँ जा रहे हैं?” गणेश शंकर ने निर्भीक स्वर में उत्तर दिया, “मरने जा रहा हूँ, हिम्मत हो तो तुम भी साथ चलो।” सब सन्न रह गए। 

सामने सौ गज़ की ही दूरी पर क़रीब दो सौ मुसलमान भाला, बरछी लिए ग़ुस्से में अल्लाह हो-अकबर के नारे लगा रहे थे। गणेश शंकर इस सबसे भयभीत हुए बिना आगे बढ़ते जा रहे थे। भीड़ चिल्लाई, “मारो काफ़िर को।” 

तभी भीड़ में से ही एक स्वर गूँजा, “ठहरो! यह तो गणेश भइया हैं। इन्होंने कितने ही मुसलमानों की सुरक्षा अपनी जान पर खेल कर की है।” यह स्वर मुन्नी खाँ पहलवान का था। मुन्नी खाँ लपककर आगे बढ़े। उन्होंने गणेश शंकर को सीने से लगा लिया। घुटनों के बल बैठकर गणेश शंकर के दोनों हाथ चूमे, और दुआ की, “ऐ ख़ुदा! गणेश के बाज़ुओं में और क़ुव्वत दे। वह तो इंसानियत का सच्चा मददगार है।” 

सभी मुसलमानों ने नारा लगाया, “गणेश भइया जिंदाबाद।” गणेश शंकर के नयन सजल हो उठे। मुन्नी खाँ ने बताया कि करीम की चक्की वाले मकान में कुछ हिन्दू परिवार फँसे पड़े हैं। गणेश शंकर मुन्नी खाँ को साथ लेकर उन परिवारों को बचाने के लिए चल पड़े। वहाँ से 24 हिन्दू स्त्री-बच्चों को लेकर वे उन्हें सुरक्षित पहुँचाने के लिए चल दिए। 

सामने वांका मंडी की ओर से 15-20 मुसलमान कांता, फरसा लिए चले आ रहे थे। उन युवकों के तेवर देखकर गणेश शंकर के एक साथी ने उनको वहाँ से भाग जाने की सलाह दी। वह बोला, “आपकी जान ख़तरे में है। मेहरबानी करके आप शीघ्र यहाँ से चले जाएँ। ये लोग पागल हो रहे हैं। आपको मार देंगे।” 

गणेश शंकर दृढ़ स्वर में बोले, “मैंने जीवन में कभी पीठ पीछे नहीं दिखाई। मैं भाग कर जान नहीं बचाऊँगा। मेरे ख़ून से उनकी प्यास बुझती हो तो मुझे ख़ुशी होगी।” 

तब तक हमलावर पास आ गए। उनमें से एक चिल्लाया, “यही गणेश शंकर हैं।” दूसरा बोला, “मारो काफ़िर को भागने ना पाए।” 

गणेश शंकर ने उनके सामने अपना सिर झुका दिया और कहा, “यदि मेरे ख़ून से आपको शान्ति मिलती है तो . . .” वाक्य अभी पूरा भी नहीं हो पाया था कि किसी ने उनकी पीठ में छुरा घोंप दिया। दूसरे ने कांते से भरपूर प्रहार किया। गणेश शंकर गिर पड़े। उन पर लाठियों, बरछियों और भालों का प्रहार होता रहा। 

गणेश शंकर के ख़ून का एक-एक क़तरा साम्प्रदायिक एकता के लिए 40 वर्ष की छोटी आयु में परवान चढ़ गया। उनकी इस नृशंस हत्या से सारा राष्ट्र स्तब्ध रह गया। गणेश शंकर मर कर भी अमर हो गए। आज गणेश शंकर हमारे मध्य नहीं हैं परन्तु उनका यह अमर बलिदान देशवासियों को सदियों तक एकता की प्रेरणा देता रहेगा। 

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