आज़ादी का तीर्थ जलियाँवाला बाग़

01-05-2023

आज़ादी का तीर्थ जलियाँवाला बाग़

सुरेश बाबू मिश्रा (अंक: 228, मई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

आज़ादी के आन्दोलन के दौरान जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के बहुत चर्चित रहा। इसकी गूँज देश की सीमाओं को पार कर विदेशों तक जा पहुँची। इस नरसंहार से अंग्रेज़ी शासन का क्रूर चेहरा विश्व समुदाय के सामने आ गया और सभी ने इसकी घोर निन्दा की। इससे अँग्रेज़ सरकार की ख़ूब किरकिरी हुई।

बैसाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में एक सभा रखी गई थी जिसमें कुछ नेता भाषण देने वाले थे। शहर में कर्फ़्यू लगा हुआ था, फिर भी इसमें सैकड़ों लोग ऐसे भी थे, जो बैसाखी के मौक़े पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे और सभा की ख़बर सुनकर वहाँ जा पहुँचे थे। जब नेता बाग़ में पड़ी रोड़ियों के ढेर पर खड़े होकर भाषण दे रहे थे, तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहाँ पहुँच गया। उन सबके हाथों में भरी हुई राइफ़लें थीं। नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहाँ मौजूद लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा।

सैनिकों ने बाग़ को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। 10 मिनट में कुल 1650 राउण्ड गोलियाँ चलाई गईं। जलियाँवाला बाग़ उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक ख़ाली मैदान था। वहाँ तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक सँकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएँ में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआँ भी लाशों से पट गया।

बाग़ में लगी पट्टिका पर लिखा है कि 120 शव तो सिर्फ़ कुएँ से ही मिले। शहर में कर्फ़्यू लगा था जिससे घायलों को इलाज के लिए भी कहीं ले जाया नहीं जा सका। लोगों ने तड़प-तड़प कर वहीं दम तोड़ दिया। अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है जबकि जलियाँवाला बाग़ में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते हैं जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6 सप्ताह का बच्चा था। अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए। अधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या 379 बताई गई जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या 1500 से अधिक थी जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डाॅक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से अधिक थी।

मुख्यालय वापस पहुँच कर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड डायर ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को टेलीग्राम किया कि उस पर भारतीयों की एक फ़ौज ने हमला किया था जिससे बचने के लिए उसको गोलियाँ चलानी पड़ीं। ब्रिटिश लेफ्टिनेंट गवर्नर मायकल ओ डायर ने इसके उत्तर में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड डायर को टेलीग्राम किया कि तुमने सही क़दम उठाया। मैं तुम्हारे निर्णय को अनुमोदित करता हूँ। फिर ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ डायर ने अमृतसर और अन्य क्षेत्रों में मार्शल-लाॅ लगाने की माँग की जिसे वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड ने स्वीकृत कर दिया।

इस हत्याकांड की विश्वव्यापी निंदा हुई जिसके दबाव में भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट एडविन माॅण्टेगू ने 1919 के अंत में इसकी जाँच के लिए हंटर कमीशन नियुक्त किया। कमीशन के सामने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड डायर ने स्वीकार किया कि वह गोली चलाकर लोगों को मार देने का निर्णय पहले से ही लेकर वहाँ गया था और वह उन लोगों पर चलाने के लिए दो तोपें भी ले गया था जो कि उस सँकरे रास्ते से नहीं जा पाई थीं। हंटर कमीशन की रिपोर्ट आने पर 1920 में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड डायर को पदानवत करके कर्नल बना दिया गया और अक्रिय सूची में रख दिया गया। उसे भारत में पोस्ट न देने का निर्णय लिया गया और उसे स्वास्थ्य कारणों से ब्रिटेन वापस भेज दिया गया। हाउस ऑफ़ काॅमन्स ने उसका निंदा प्रस्ताव पारित किया परन्तु हाउस ऑफ़ लार्ड ने इस हत्याकाण्ड की प्रशंसा करते हुए उसका प्रशस्ति प्रस्ताव पारित किया। विश्वव्यापी निंदा के दबाव में बाद को ब्रिटिश सरकार को इस्तीफ़ा देना पड़ा।

गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस हत्याकांड के विरोध-स्वरूप अँग्रेज़ सरकार द्वारा दी गई अपनी नाइटहुड की उपाधि को वापस कर दिया। आज़ादी के लिए लोगों का हौसला ऐसी भयावह घटना के बाद भी पस्त नहीं हुआ। बल्कि सच तो यह है कि इस घटना के बाद आज़ादी हासिल करने की चाहत लोगों में और ज़ोर से उफान मारने लगी। हालाँकि उन दिनों संचार और आपसी संवाद के वर्तमान साधनों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, फिर भी यह ख़बर पूरे देश में आग की तरह फैल गई। आज़ादी की चाह न केवल पंजाब, बल्कि पूरे देश के बच्चे-बच्चे के सिर चढ़कर बोलने लगी। उस दौर के हज़ारों भारतीयों ने जलियाँवाला बाग़ की मिट्टी को माथे से लगाकर देश को आज़ाद कराने का दृढ़ संकल्प लिया। पंजाब तब तक मुख्य भारत से कुछ अलग चला करता था परन्तु इस घटना से पंजाब पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हो गया। इसके फलस्वरूप गाँधी ने 1920 में असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ किया।

1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा एक प्रस्ताव पारित होने के बाद साइट पर एक स्मारक बनाने के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की गई थी। 1923 में ट्रस्ट ने स्मारक परियोजना के लिए भूमि ख़रीदी थी। अमेरिकी वास्तुकार बेंजामिन पोल्क द्वारा डिज़ाइन किया गया एक स्मारक, साइट पर बनाया गया था और 13 अप्रैल 1961 को जवाहर लाल नेहरू और अन्य नेताओं की उपस्थिति में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने इसका उद्घाटन किया था।

गोलियों के छेद दीवारों और आस-पास की इमारतों में इस समय भी दिखते हैं। जिस कुएँ में कई लोग कूद गए और गोलियों से ख़ुद को बचाने की कोशिश कर रहे थे, वह पार्क के अंदर एक संरक्षित स्मारक के रूप में है।

आज जलियाँवाला बाग़ आज़ादी का पावन तीर्थ बन गया है। स्वर्ण मंदिर गुरुद्वारा के बिल्कुल निकट होने के कारण पूरे देश से लोग आज़ादी के इस तीर्थ को देखने अवश्य आते हैं। अब इसके दो गेट बना दिए गए हैं। एक प्रवेश के लिए और दूसरा निकास के लिए।

प्रवेश द्वारा वही सँकरा रास्ता जिससे ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड डायर के नेतृत्व में ब्रिटिश सैनिक अन्दर आए थे। ब्रिटिश सैनिकों के चित्र प्रवेश मार्ग पर बने हुए हैं जो उस नरसंहार की यादें ताज़ा करते हैं।

बाग़ के अन्दर शहीद स्तम्भ बनाया गया है जिससे वहाँ आने वाले लोग उन अमर शहीदों के बलिदान से प्रेरणा ले सकें। पूरे बाग़ में लगे हरे-भरे पौधे एवं वृक्ष दर्शकों को मन मोह लेते हैं। जिस कुँए में प्राण बचाने के लिए सैकड़ों लोग कूद पड़े थे उसे भव्य रूप प्रदान किया गया है। पूरे समय वातावरण में देशभक्ति के तराने गूँजते रहते हैं।

बाग़ में एक तरफ़ एक पिक्चर गैलरी बनाई गई है जिसमें इस नरसंहार में प्राण गँवाने वाले शहीदों के चित्र लगे हुए हैं। पास में ही अमर ज्योति बनी हुई है जो लगातार जलती रहती है। पूरा वातावरण देशभक्ति की भावना से परिपूर्ण है और यहाँ आने वालों में देश प्रेम की भावना का संचार करता है।

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