पहाड़ों की गुइयाँ

15-11-2021

पहाड़ों की गुइयाँ

सुनील चौधरी (अंक: 193, नवम्बर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

गुइयाँ बचपन में कितना ही घूमती थी, कभी उसके घर तो कभी इसके। दिन भर पहाड़ों को निहारती कभी ऊँट बनाती तो कभी हाथी। पहाड़ उसके लिए खिलौनों की आकृतियाँ लेते थे। घर से पगडंडी के सहारे भेड़ों को हाँकते, नीचे नदी की तलहटी में उतर आती और उसके साफ़ स्वच्छ शीतल जल से ओक भर-भर पानी पीती।

इन्हीं पहाड़ों और नदियों के बीच उसके शरीर पर मांस चढ़ता गया और लोग उसे जवान कहने लगे लेकिन मन से गुइयाँ आज भी छोटी थी। वह नदी किनारे रेत से अपनी एक दुकान बनाती और तरह-तरह के फल यूँ ही बेचने लगती और उसके छोटे साथी पत्थर उठाकर देते और वह उन्हें पैसा समझते। गुइयाँ मिट्टी का ढेला उन्हें देती जिसे वह चीज़ कहती। लेकिन जवान होती बिटिया को माँ-बापू तो डाँटते ही, साथ ही पड़ोसी भी कहते गुइयाँ अब बड़ी हो जा।

गुइयाँ कुछ समय बाद बड़ी हो गई थी और कुछ वर्ष बाद विवाह भी हुआ। गुइयाँ की सास सब को बताती कि उसकी बहू नदिया की तरह निर्मल है। हँसने पर आँखों में घास के हरे मैदान तैर जाते हैं। बादल की तरह उजली है। गुइयाँ के पति मुकुट एक छोटी सब्ज़ी व फल की दुकान चलाते। एक दिन गुइयाँ से बोले, "सुन न पास बैठ! मैं सोचता हूँ कि क्यों न एक छोटी सी कोठरी अपने और तेरे लिए नदिया के पार बना लूँ।"

गुइयाँ ने हाँ मैं सिर हिलाते हुए कहा था, "हाँ, बना लो जी।"

तब मुकुट ने कहा कि कुछ काम से शहर जाऊँगा तेरे लिए क्या लेता आऊँ? गुइयाँ ने पायल की माँग की थी, जो रुनझुन-रुनझुन बजती हो।

मुकुट घर बनाने के लिए सारे इंतज़ाम करने लगा था। उसने भाटा (पत्थर) जमा लिए थे और मिट्टी, लकड़ी का भी इंतज़ाम कर लिया था; लेकिन किसे पता होनी को कुछ और ही मंजूर था। उसदिन बादल ऐसे फटे की मुकुट जलधारा में कहीं दूर बह गया। उस दिन के बाद जैसे गुइयाँ का घर ही सिमट गया था। कितने ही दिन वह रोती रही थी।

आज 40 साल बीत गए हैं। गुइयाँ ने नदी किनारे अपनी कोठरी बनाई है और वहीं फलों के साथ यात्रियों को बिस्किट्स, चिप्स, मिरांडा बेचती है। कितनी ही बार चलते-फिरते लोगों ने कहा है कि चलो दादी गाँव में घर बनवा दें राशन का भी इंतज़ाम कर देंगे लेकिन गुइयाँ कहीं नहीं जाती। उसके जीवन संघर्ष की रेखाएँ चेहरे पर उभर आयी हैं लेकिन उसे भरोसा है कि उसका मुकुट पायल लेकर एक दिन उससे मिलने आएगा ज़रूर।

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