नर्मदा जी के घाट पर, अनकही प्रतीक्षा
प्रेम ठक्कर ‘दिकुप्रेमी’
यह यात्रा एक ऐसी अनकही कहानी है, जिसमें मैं अपनी ज़िन्दगी के सबसे क़ीमती पलों की तलाश में हूँ। नर्मदा जी के घाट पर बैठा, लहरों की शांत ध्वनि में खोया, मैं उस शख़्स के बारे में सोच रहा हूँ, जो मेरी ज़िन्दगी का सबसे ख़ास हिस्सा बना हुआ है। लेकिन अब वह मुझसे बहुत दूर है—ना जाने कौन सी राह पर—और मैं बस यहीं बैठा उसका इंतज़ार कर रहा हूँ।
यह वही स्थान है, जो कभी हमें क़रीब लाया था—हमारे बीच की दूरी चाहे कितनी भी रही हो, पर अब यह दूरी भी उसकी यादों से भर जाती है। मंदिर की शान्ति और नर्मदा मैया की लहरें मुझे बार-बार उसकी याद दिलाती हैं। मैंने कभी उसके साथ समय बिताने का सपना देखा था, लेकिन आज केवल उसकी यादें ही मेरी संगिनी हैं।
यह सफ़र मेरे दिल की उन अनकही भावनाओं का है, जिन्हें मैंने हमेशा अपनी कविताओं में ढाला है। मुझे नहीं पता कि वह कब लौटेगी, या क्या वह मुझे फिर से कभी याद करेगी, पर इस घाट की हर लहर में उसकी उपस्थिति का एहसास होता है। उसकी छवि मेरी आँखों में बसी रहती है, और उसकी आवाज़ अब भी मेरे कानों में गूँजती है, मानो वह कभी गई ही न हो।
मैं यहाँ उसी की प्रतीक्षा में हूँ, उस पल का इंतज़ार कर रहा हूँ जब हम फिर से मिलेंगे। इस यात्रा का कोई अंत नहीं दिखता, क्योंकि मेरी भावनाएँ उसे तलाश रही हैं। मैं उसकी वापसी की उम्मीद लगाए बैठा हूँ, लेकिन दिल की गहराइयों में यह डर भी छिपा है कि वह शायद अब कभी लौटकर न आए।
यह यात्रा उस अनंत प्रेम की है, जो समय और दूरी की परवाह नहीं करता। यह मेरी कहानी है—उससे जुड़ी हुई, पर फिर भी सब कुछ अनकहा, अनछुआ। इस सफ़र में मेरा दिल हर धड़कन के साथ उसे पुकारता है, उसकी यादों में खोया रहता है, और नर्मदा जी की लहरों में उसकी आहट तलाशता है।