आख़िर क्यों?
प्रेम ठक्कर ‘दिकुप्रेमी’
क्यों हर राह तुझ तक जाती नहीं,
क्यों तेरी झलक नज़र आती नहीं?
हर रोज़ तुझे देखने की कोशिश की,
फिर भी क्यों मेरी दुआ असर लाती नहीं?
ना कोई शिकवा, ना कोई गिला है,
तेरे बिना हर लम्हा मुझे अधूरा मिला है।
मैंने तो बस तुझसे प्यार किया,
फिर क्यों मुझे ये फ़ासला मिला?
कभी ख़्वाबों में, तो कभी यादों में,
तू ही बसी है मेरी सब फ़रियादों में।
फिर क्यों तुझे छू नहीं पाता मैं,
तेरा होकर भी, तुझको ही खो जाता मैं?
आख़िर ऐसा क्या गुनाह हो गया,
जो मेरा इश्क़ ही मेरे लिए सज़ा हो गया?