मौत भी डर गई थी

01-02-2023

मौत भी डर गई थी

बीना राय (अंक: 222, फरवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

हर उजड़ी हवेली, हर बंजर ज़मीन 
मुझे उन दिनों की याद दिलाती है
उन दिनों की जब मैं तुझसे उन दिनों 
यकबयक से बिछड़ी थी। 
 
उजड़ी हवेलियों के जर्जर खंभे 
मुझे याद दिलाते हैं किस तरह 
हर आहट पर मैं तेरे अक्स को 
टटोल कर तुझे अपनी भूखी 
बाज़ुओं में समेट कर तुझसे लिपट कर 
एक बार जी भर कर रो लेने की नाकाम 
कोशिश कर अपनी रूह को थकाकर
बदहाल कर दिया था। 
 
किसी भी बंजर ज़मीन में पड़ी दरारें 
याद दिलाती हैं मुझे कि किस तरह 
तेरे इस संसार में जीते जी मैंने तेरे 
मुझमें ना होने की मातम में ख़ुद को 
सबसे जुदा कर लिया था। 
 
बिल्कुल रुखी और ख़ूँख़ार, 
यूँ हो गई थी मैं कि मौत भी मेरी 
लाल आँखों की बात सुनकर 
डर गई थी जब मैंने उसे देखा था 
लाल आँखों से ख़ामोशी भरे अंदाज़ में 
ये पूछते हुए तरेरकर कि 
ठहर नहीं सकती थोड़ी देर? 
 
मैंने कहा था तब मौत से 
बड़ी उम्मीद से आ रहा होगा वह। 
होगी उसके भी सामने कोई अड़चन, 
मुझे इस जहाँ से ले जाने से पहले 
तू मुझे उसका दीदार तो कर लेने दे। 
और डर कर मौत भी 
मुझ सूखे दरख़्त को छोड़कर 
मेरी हिज्र की ज़मीं पर चली गई सदा के लिए। 
  
फिर ना तू आया 
ना ही मौत आई मुझ तक लौट कर। 
ख़ैर, अब मैं हरी हूँ सदा के तेरे दिये ज़ख्मों से 
और अब दिल ने उस सब्र को ही 
अपना हमसुखन चुन लिया है 
जिसके नूर से रूह 
निखरती जा रही है दिन ब दिन
लेकिन तुझे भूलना आज भी मेरे वश में नहीं। 

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