मन्दिर को दरबार कहोगे
डॉ. विकास सोलंकी
22 22 22 22
मन्दिर को दरबार कहोगे
फूलों को तुम ख़ार कहोगे
मानवता का इल्म सिखाती
पुस्तक को अख़बार कहोगे
जीत गया कल शिष्य समर में
गुरुओं की तुम हार कहोगे
बाबूजी लाचार हुए क्या
माथे का तुम भार कहोगे
वोल्गा से जो आज चली है
क्या गंगा की धार कहोगे
देख अनय को चुप बैठा जो
उसका क्या किरदार कहोगे