मैंने पूछा मेघ से
क्षितिज जैन ’अनघ’मैंने पूछा मेघ से ही एक दिन
क्यों तुम सूर्य ताप सहते हो?
जलते क्यों तुम कण-कण सदा
कहो मेघ! तुम क्या कहते हो?
मेघ बोला हँसकर गंभीर हँसी
तप ही तो है सूर्य का ताप भी
मंत्रोच्चारण ही तो होता है देखो!
मेरा दामिनी रूपी तीव्र जाप भी।
मैं तो हो गया हूँ सुखी तभी से
जब लिए थे दुख धरा के अपना
तजकर सर्वस्व को ही मैं तब से
इतने वर्षों में सर्वस्व ही गया पा।
मैं वह पथिक हूँ अनंतकाल का
जिसका गंतव्य ही सदा चलना है
मैं हूँ नहीं अग्नि स्वयं, मैं हूँ मेघ
जिसका काम रश्मियों से जलना है।
मेरा नहीं कोई उद्देश्य,कोई इच्छा
मेरा तो ध्येय ही मेरी यह राह है
सूर्य के पास होगा रश्मियों का रथ
मेरा रथ तो अविरत पवनप्रवाह है।
कहता आया हूँ मैं यही मानवता से
दे डालो समस्त तुम स्व-संताप मुझे
धरा के है जो भी दुख और दर्द सारे
मिलते जाये निरंतर अपने आप मुझे।
दे जाना सारे दुख मुझे, कहा उसने
यह मानव-उत्थान का बड़ा मोल नहीं
यह है कर्म पथ मेरा नित्य शाश्वत
यह वाचाल का कोई बड़ा बोल नहीं।
जो भी चाहते कल्याण, मेरे पास आयें
अपने कष्ट अपनी पीड़ायें, मुझे दे जाएँ
तुम्हारी पीड़ा को यह मेघ बंधो! उठाएगा
पवनप्रवाह पर आसीन चलता ही जाएगा।