क्षितिज जैन ’अनघ’ – 002
क्षितिज जैन ’अनघ’हम कहते हैं एकता, आप कहें अलगाव।
आख़िर कैसे मान लें, हम यह कलुषित भाव॥
मन में जब आरम्भ से, पड़ी हुई थी रार।
शक्कर ने भी नोन बन, डाली केवल खार॥
माला श्वेत रत्न सजी, जपी एक सौ आठ।
कपट-भाव छोड़े नहीं, बना रहा ही काठ।
कैसे होगा झूठ वह, कैसे होगा स्वार्थ।
निर्दोषों का अनकहा, भोगा हुआ यथार्थ॥
कलखाने ये झूठ के, बिछा रहें हैं जाल।
दुनिया के बाज़ार में, बिकता इनका माल॥
मैत्री के प्रतिदान में, दिया गया जब क्रोध।
अंध हुए अभिमान में, झुलस गए अनुरोध॥
बहना था उन्मुक्त हो, तोड़ सभी तट-तीर।
दी लेकिन संकोच ने, बाँध हमें ज़ंजीर॥