लकीर कागज़ पर
राजेंद्र ‘राज’ खरेइक लकीर है कागज़ पर खिंची चली जाती है
लहराती हुई तेरी जुल्फ़ों की याद आती है
कस कर थाम लेता हूँ मैं ख़्यालों को तेरे
फिर भी तेरी तस्वीर धुंधली हुई जाती है
अपने गम के आंसू जब पी लेता हूँ मैं
कभी कोई ग़ज़ल कागज़ पर उतर जाती है
ख़्वाबों में शामिल नाजुकी से झुकी जाती है
वो धूप की रोशनी सी हकीकत हुई जाती है
गुमशुदा कोई याद तुम्हारा नाम बता जाती है
‘राज’ यह पहचान कैसी कि दर्द दिए जाती है