आकर्षण
राजेंद्र ‘राज’ खरे[1]
तुमने उसे
महज़ आकर्षण ही
समझा जिसे मैं
अनुभूति की नींव में
उगता नन्हा सा पौधा,
उखाड़ा और फेंक दिया
तुमने उसे–
जड़ें उसकी बेहद कोमल थीं
बारीक़ रेशों की मानिंद!
तुम डर गए कि
रेशे की मानिंद जड़ें
कहीं दरका न दें
पत्थर के उन मकानों को
अफ़सोस, कि जिनमें तुम
रहते हो!
[2]
तुम सहम गए
उँगलियों के उठने से
इसीलिए तुमने
उखाड़ा और,
फेंक दिया नन्हा पौधा,
पर तुम भूल गए
पत्थर के लोगों की
इस त्रासदी को–
उनकी उँगलियाँ
कभी मुड़ नहीं सकतीं
स्वयं की ओर,
पत्थर की जो ठहरी न!
[3]
हो सकता है
तुमने सीखा हो
पथरीली भाषा को,
या फिर
तुम्हारी भी शिराओं में
बहने लगे हों
पथरीली भावनाओं के अंश,
पर जो भी हो
पत्थर के इंसानों!
जिनमें तुम हो,
या जो तुम हो,
नन्हे पौधे
उगते हैं सिर्फ़
देने को तुम जैसे
कतरे हुए पंखों वाले
पंछी को
एक क़तरा छाँव
या, संवेदन की
पंख-छुअन!
समझ सकोगे
कभी ये सब
या, फिर उखाड़ोगे,
फेंकोगे, नन्हे पौधे
और बोलोगे
यूँ ही पथरीली भाषा!