कुछ यादें
पवन त्रिपाठी
कुछ यादें जो तुम्हें भेजी थीं
क्या वह तुम तक नहीं पहुँचीं?
शायद शहर के तुम्हारे
उन्हीं रास्तों में
मेरी तरह वह भी
गुम हो गयीं।
वो यादें बेहद दिलचस्प थीं
जो तुम्हें भेजी थीं।
वो भी उसी तरह निकली थीं ज़ेहन से
जिस तरह कभी तुम थी निकली।
दबाया लोगों ने बहुत मेरी यादों को
पर ज़मीर मेरा दब न सका
शायद पहुँच ही रही होंगी
मेरी यादें तुम तक
पता पूछकर उन गलियों से
जहाँ खड़ा होता था मैं अक़्सर
थोड़ा क़दम मुझ तक तुम भी बढ़ाना
मेरी यादें तुम तक पहुचेंगी
कुछ यादें जो तुम्हें भेजी थीं
क्या पहुँच गयी हैं? या भटक रही हैं अब तक वहीं?