कोई अभिलाषा का दीपक अब नहीं है
इन्दिरा वर्मा
कोई अभिलाषा का दीपक अब नहीं है
न कोई बाँह थामे चल रहा है,
यातनायें हैं, यदि चहुँ ओर तो,
निश्चिन्त है मन, साथ छोड़ें सब—
मुझे दुविधा नहीं है।
जैसे जिया, जो भी किया—क्यों प्रश्न मन को सालते हैं?
दीन दुनिया के लिये जो भी किया
क्यों मन नहीं कुछ मानता है,
क्या रहा बाक़ी अभी,
यह क्यों समझ आता नहीं है
कौन बतलाये, कहाँ जाऊँ, किधर जाऊँ
राह दिखलाता नहीं हैं!
पुस्तकें—देखीं, किया अभ्यास अनुसधांन तक भी,
खोज में लग कर समय कितना बिताया क्या कहूँ अब
पा न पाई पार तेरा क्यूँ छुपा है तू अभी तक
आ स्वप्न में ही, तुझे संबल बना लूँ
राह पर चलती रहूँ, पर कुछ लकीरें छोड़ जाऊँ,
जिन लकीरों पर लिखा हो नाम मेरा,
जो उकेरे, प्यार के दो शब्द वह पाये वहाँ पर!