जीवन संगीत—मेरी यात्रा
इन्दिरा वर्मा
लगभग १९५० की बात है। भारत स्वतंत्र हो चुका था। हम लोग आगरे में रहते थे। मेरे बाबूजी मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे। शहर का माहौल मिला-जुला-सा था कहीं-कहीं कुछ दंगे आदि की ख़बर बड़ों से सुनाई पड़ जाती थीं। मेरे दो भाई तथा मैं, पास के स्कूल में पढ़ते थे। सब साथ-साथ ही अधिकतर आते-जाते थे। कभी कभी आगे-पीछे भी। रास्ते में कुछ दुकानें पड़ती थीं और रास्ते से थोड़ा हट कर एक केवल लड़कियों का स्कूल पड़ता था। भाई दोनों तो उछलते-कूदते जल्दी से घर पहुँच जाते। मुझे देर हो जाती। कारण उस लड़कियों के स्कूल से गाने की आवाज़ सुनाई पड़ती थी। वहीं सुनने रुक जाती। संगीत से शायद वह मेरा पहला परिचय था, माँ की लोरियाँ तो ज़्यादा याद नहीं अब, बस मन की गहराइयों में पड़ीं होगी कहीं। स्कूल से आती हुई उस आवाज़ के कारण मैं वहीं खड़ी हो जाती मुझे देर होने पर भाई को घर में डाँट भी पड़ती कि बहन को पीछे छोड़ आया, जा लेकर आ। भाई को यह बात अभी भी याद है और कहता है कि तुम तो खो गईं थीं और मैं ढूँढ़ कर लाया। सामाजिक ऊहापोह तो चल ही रही थी। एक दूसरे पर अधिक विश्वास नहीं था। राशन का समय था, नाप, गिन कर घर में सामान आता था। एक जैसे कपड़े सबके बन जाते थे थान में से। बाबूजी साइकिल से कॉलेज जाते थे। जब तक घर न आ जायें हम सब चिन्ता मुक्त न होते। हम बच्चे भी शायद कुछ डरे तो रहते होंगे। विशेष कर लड़कियाँ! तरह-तरह की कहानियाँ सुनाई पड़ती थीं। अपनी तथा परिवार की सुरक्षा बड़ों का पहला काम था। मेरी नानी पंजाब में रहतीं थीं, उनके पत्रों से वहाँ की राजनैतिक स्थति की सूचना चिन्ता भरी मिलती थी, कभी कभी साथ में उनकी चिट्ठियाँ हम सबकी कुशलता के लिये प्रार्थना, ईशवर मंत्र व उपासना के साथ मिलतीं। अर्थात् सारे देश में अभी पूर्ण रूप से शान्ति नहीं थी। यह बात उन दिनों के संगीत में भी सुनाई पड़ती थी जो उन दिनों लाउड स्पीकर पर बजता रहता था। हम आगरे के अच्छे सुरक्षित भाग में रहते थे, पर बाहर आना-जाना कम ही होता था, यदि होता भी तो ताँगे या इक्के में। हमारे घर के ऊपर के हिस्से में हमारी बड़ी बुआ रहती थीं, बाद में छोटी बुआ भी कुछ दिनों के लिये आईं। मेरी व उनकी ख़ूब पटती थी क्योंकि वे गाती थीं। थोड़ा बहुत मुझे सिखाने की कोशिश करती थीं। उनका सिखाया गाना, (पंछी बावरा, क्यों चाँद से प्रीत लगाये) मुझे याद है। हम दोनों मेरे स्कूल के सिलाई के प्रोजेक्ट करते, साथ में गाते और ख़ूब हँसते।
थोड़ा समय बीतने पर पाया कि मेरी माँ हारमोनियम बजा कर गाती हैं। आस-पड़ोस में शादी-ब्याह या अन्य सुअवसरों पर माँ यदि जातीं तो उनसे अवश्य ही गाने के लिये कहा जाता। मैं भी उनके पास बैठती थी। गाने मुझे जल्दी याद हो जाते थे। हमारे घर में रेडियो था, पर बाबूजी, हर समय हम वह सुनें, पसन्द न करके हम बच्चों को पढ़ाई की ओर ही ध्यान देने के लिये कहते रहते थे। इसलिये रेडियो कभी-कभी ही सुना जाता था।
बाबूजी की मेडिकल पढ़ाई समाप्त होने के बाद उनका तबादला उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर, मनकापुर में हो गया। वहाँ एक लड़कों का व एक लड़कियों का स्कूल था। जब मैं माँ के साथ लड़कियों के स्कूल गई तब वहाँ पढ़ाई की जगह और बातें जैसे घर के काम आदि करती हुई लड़कियाँ दिखीं। शायद उस समय तक लड़कियों की शिक्षा के लिये जागरूकता नहीं थी। मेरी माँ को वहाँ का माहौल अच्छा नहीं लगा, मेरा दाख़िला लड़कों के स्कूल में करा दिया गया। मैं नियम से स्कूल जाने लगी। वहाँ हिन्दी के अध्यापक बहुत अच्छे ज्ञानी थे। वे संस्कृत भी पढ़ाते थे। राम चरित मानस, कविता व अंताक्षरी से प्रेम मुझे तभी से हुआ। मनकापुर यूँ तो बहुत छोटी जगह थी, संगीत आदि का कोई स्थान नहीं था परन्तु संध्या समय दूर से ढोलक-बाजे की आवाज़ आती थी। पता चला कि गाँव वाले भजन, आल्हा-ऊदल अलाव के चारों ओर बैठ कर गाते हैं। होली पर भी ख़ूब नाच-गाना होता था। यदि घर के आस-पास होता तो हम बच्चे भी थोड़ा बहुत देख लेते। नहीं तो हम माँ की सूती साड़ियाँ पहन कर स्वयं ही नाटक करते, सुने-सुनाये गीत गाते।
वहीं के एक प्रसिद्ध नागरिक जो राजा साहब कहलाते थे, के भव्य प्रांगण में एक बार राम चरित मानस का पूरे सप्ताह का आयोजन हुआ और हम सब भी सुनने जाते। मैं छोटी ही थी परन्तु बहुत अच्छा लगता था क्योंकि वे गा कर पढ़ते थे। उस के बाद मैंने भी गा कर रामायण पढ़ना शुरू किया। ऐसे ही एक बार कवि सम्मेलन में हास्य कवि बेढब बनारसी और गोपाल प्रसाद व्यास को बुलाया गया। उनकी (काल कचहरी देख लीन), अभी तक याद आती है। मनकापुर अब तो बड़ा शहर हो गया है पर उस समय गाँव ही था। स्त्रियाँ बाहर नहीं निकलती थीं। पति-पत्नी एक दूसरे का नाम नहीं लेते थे। बाबूजी से इलाज के लिये जो बीमार स्त्रियाँ आतीं, वे या तो अपने पति के द्वारा या घूँघट में से बात करतीं। पान खाना व खिलाना संस्कारी बात मानी जाती थी। हमारे घर में भी पान दान था। छोटी जगह होने के बाद भी मनकापुर सदा मेरी यादों में रहता है। वहाँ के आम, कटहल के पेड़ों की छटा, मिली-जुली भोजपुरी भाषा, वहाँ के सादे सरल स्त्री-पुरुष, दूर से आती हुई ग्रामीण संगीत की लहरी अक्सर याद आते हैं। बिना बिजली का घर, पानी का कुआँ, घर के चारों ओर स्वछंद घूमते पशु-पक्षी, वह स्कूल जहाँ बहुत दिन तक मैं अकेली लड़की थी और कुछ भी गाने के लिये मुझे ही बुलाया जाता था विचारों, कहानियों में उभर आते हैं।
मेरी संगीत यात्रा यहाँ तक बहुत कच्ची थी या यूँ कहिये कि अपना रास्ता पगडंडियों से होकर बना रही थी। जीवन की राहें कहाँ-कहाँ ले जाती हैं तथा कैसे हमें बदल डालती हैं पता नहीं चलता और ना ही हमारा कोई वश चलता है। चलते जायें तो छोटी बड़ी मंज़िलें भी मिलती जाती हैं, बहा कर ले ही जाती हैं साहिल की ओर! किसी ने ठीक ही कहा है ‘क़िस्मत में चलना लिखा था तो चलते रहे’।
मनकापुर के बाद मेरे बाबूजी मथुरा ज़िले के पास एक छोटे शहर कोसी में आ गये। यहाँ का हाई स्कूल अच्छा था। मैं और मेरे दोनों भाई वहाँ पढ़ने लगे। इस शहर का सिनेमा घर हमारे घर से पास था। हमें सिनेमा देखने की आज्ञा तो नहीं थी पर कभी-कभी वहाँ पर बजते हुए गाने मैं सुनती थी। करवा चौथ पर माँ के साथ सिनेमा देखने की आज्ञा बाबूजी ख़ुशी-ख़ुशी दे देते ताकि समय का पता न चले और माँ का व्रत पूरा हो जाये।
कोसी से मैट्रिक पास करके हम लोग लखनऊ के पास सीतापुर नामक शहर में आये जहाँ मेरी आगे की पढ़ाई जारी रही। सीतापुर में डिग्री कॉलेज न होने के कारण मैंने स्वयं ही बीए की तैयारी शुरू की। वहाँ मैंने घर पर ही संगीत सीखना भी आरंभ किया। यहाँ पर माँ और बाबूजी के परिचित मिलकर गाने-बजाने, नाटक आदि का आयोजन समय-समय पर करते थे जिसमें बच्चे–बड़े सभी भाग लेते थे।
बाबूजी को ग़ज़ल व माँ को भजन गीत आदि का शौक़ था। वे हमारे लिये रिकॉर्ड मँगवाते और फिर सीख कर कार्यक्रमों में भाग लेने के लिये प्रोत्साहन देते। हम लोग ख़ूब गाते और आनंद लेते।
सीतापुर से कुछ समय के लिये बाबूजी गोरखपुर ज़िले के एक शहर में रहे। कसिया में कोई अच्छा स्कूल कॉलेज नहीं था। निर्णय यह हुआ कि माँ हम बच्चों के साथ देहरादून में रहेंगी और हम लोग वहीं पढ़ेंगे। कसिया में हम खिड़की से झाँकते तो बच्चों का एक छोटा-सा स्कूल दिखाई पड़ता। कुछ बच्चे और एक अध्यापक के गाने की-सी आवाज़ आ रही थी। बच्चे पेड़ के नीचे बैठे हुए थे, ध्यान से सुना तो पहाड़ा चल रहा था। (राम दाने का लडुआ एक आने का एक) वह भी गाकर। आप समझ ही गये होंगे कि कितनी पुरानी बात है। यह सब छोड़ कर हम सब देहरादून आ गये। देहरादून रहने का निर्णय परिवार के लिये कठिन था। परन्तु एक प्रकार से कुछ मायनों में सकारात्मक भी रहा। हम सब की शिक्षा अच्छे स्कूल, कॉलेज में होने लगी। साथ ही छोटी बहनें नृत्य और मैं सितार, तबला सीखने लगी।
बड़ी जगह होने के कारण देहरादून में, कवि सम्मेलन, मुशायरे तथा संगीत के कार्यक्रम भी होते थे। अवसर मिलने पर हम भी देखने-सुनने जाते थे। इस तरह हमें भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षा तो मिली ही, गाने-बजाने का अभ्यास भी होता रहा। साथ में नई-नई जगह देखने का तो आनंद ही कुछ और था।
मेरी अच्छी सहेली की बहनें घर में शास्त्रीय संगीत सीखती थीं, उनके यहाँ जन्माष्टमी पर बहुत धूमधाम होती थी तथा प्रसिद्ध संगीतकारों को बुलाया जाता था। हम भी सुनने जाते थे। बैजू बावरा फ़िल्म का प्रसिद्ध गीत (केतकी गुलाब जूही) मैंने पहली बार वहीं सुना था। पास-पड़ोस में जब हम सहेलियाँ मिलतीं तो सावन तथा झूले के गीत गातीं। लोक गीतों से मेरा परिचय वहीं पर हुआ।
देहरादून का मेरी संगीत यात्रा में और भी एक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। कहानी कुछ यूँ है। हमारे घर के पास से इकतारा बजाता हुआ एक आदमी जाया करता था। आप सब को यह तो पता ही होगा कि वह तो इकतारा बेचना चाहता था पर साथ में गाता भी था, (तुम बिन मोरी कौन ख़बर ले), मैंने उसी भले आदमी से सीखा और आज तक गाती हूँ। इकतारे वाले के पास मैं खड़ी हो जाती और वह मुझे ख़ुश देखकर और भी उत्साह से बजाता। मेरे गीतों के संग्रह में (एल्बम) जो मैंने सचिन शर्मा जी के प्रोत्साहन व सहयोग से बनाया में, यह पहला गीत है।
देहरादून में हमें विभिन्न प्रकार के अनुभव हुए। अकेले स्कूल कॉलेज आने-जाने लगे। संगी-साथी भी बन गये, वातावरण थोड़ी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की ओर बढ़ गया। हमारे कॉलेज में बहुत बढ़िया पुस्तकालय था। वहाँ से मैं अपने और माँ के लिये ख़ूब किताबें, हिंदी व अंग्रेज़ी की लाती और हम माँ-बेटी बारी-बारी से पढ़ते। मेरी माँ को पढ़ने का बचपन से चाव था और सामयिक चलन के अनुसार उन्होंने, रतन और प्रभाकर की शिक्षा प्राप्त की हुई थी, जो कि मैट्रिक और बारहवीं के बराबर माना जाता था। किसी तरह उन्हें पता चला कि वे बीए की परीक्षा दे सकती हैं।
बस, फिर क्या था! उन्होंने ठान लिया कि वे बीए की परीक्षा देंगी। उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं रहता था इसलिये हम सबने मना किया परन्तु वे नहीं मानीं। कहतीं कि बैठे-बैठे पढ़ तो सकती हूँ। कोर्स आदि की सब डिटेल मँगवाईं, किताबें सब मैंने एकत्र कीं। बस लेकर वे देहरादून से परीक्षा केंद्र पर गईं परीक्षा पास की और उन्हें बीए की डिग्री मिल गई। यह हमारे परिवार के लिये एक बहुत बड़ा दिन था।
देहरादून के बाद हम लोग मिर्जापुर, सिकन्दराबाद और खुर्जा में रहे। मेरे बाबूजी का वहाँ से बनारस आना-जाना लगा रहता था। वहीं बाबूजी का मिलना मेरे श्वसुर जी से हुआ और मेरे विवाह की बातचीत हुई। मेरे श्वसुर जी चिकित्सक होने के साथ-साथ राम भक्त, आध्यात्मिक प्रवृति के, राम चरित मानस के ज्ञाता, हिन्दी और संगीत प्रेमी भी थे। (मैंने उनके विषय में कहीं और भी लिखा है) सौभाग्य से विवाह के बाद भी मेरी रुचि संगीत में बनी रही और मैंने पाया कि हमारे घर में मेरे पति व उनकी बहन भी संगीत में निपुण थीं। मैं कभी कभी समय मिलने पर गा कर रामायण बाबूजी को सुनाती तो उनकी आँखें भर आतीं, वे राम प्रेम में विह्वल हो जाते। वे हमारे पास लंबे समय तक रहे, हमारा घर उनकी मानस पढ़ने तथा भगवत भजन गाने की ध्वनि से बहुधा गूँजता। विवाह के बाद जल्दी ही हम लोग कैनेडा आ गये थे और यहाँ जीवन चलाने के उपक्रमों में व्यस्त हो गये। और किसी काम, विशेषतौर पर गाने के लिये तो बिल्कुल भी समय नहीं मिलता था। काफ़ी समय बीत गया। जीवन अपनी गति से चलता रहा। उतार-चढ़ाव आते-जाते रहे। एक समय आया जब लगा कि अब जीवन के सभी काम समाप्त हो गये, कुछ करने को नहीं बचा। पर समय ने एक बार फिर करवट ली। शायद मेरा संगीत पुकार रहा था—“आ लौट के आजा मेरे गीत”!
यहाँ कैनेडा में कुछ हिंदी संस्थाओं से परिचय हुआ, गोष्ठी आदि में जाने व भाग लेने के अवसर मिलने लगे। बड़े धुरन्धर संगीतकारों व गायकों को सामने बैठकर सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिनके केवल नाम ही सुने थे, जैसे पंडित जसराज, जगजीत सिंह, लता मंगेशकर, ग़ुलाम अली, मेहँदी हसन!
फिर एक बड़े गुणवान नवयुवक गायक सचिन शर्मा जी से परिचय हुआ। वे गाना सिखाते भी थे। मैंने भी उनसे गाना सीखने का निश्चय किया। उनके सानिध्य से बहुत लाभ हुआ। उन्हीं के प्रोत्साहन से मैंने गीतों का एक संग्रह भी बनाया। सचिन जी भारत में सहारनपुर के रहने वाले हैं। सा रे गा मा, भारत के प्रसिद्ध गाने के कार्यक्रम में भाग ले चुके हैं, जहाँ वे अमर गायक जगजीत सिंह जी के सम्पर्क में आये और उनसे सीखा। सचिन का अपना स्टुडियो है और वे कैनेडा तथा भारत में अपने संगीत-ज्ञान का लाभ अनेक बच्चों और बड़ों को दे रहे हैं। उनके विडियो, जो वे मीडिया पर डालते हैं, बहुत लोकप्रिय हैं। सचिन जी के साथ मैंने कुछ साल सीखा, और जब भी अवसर मिला, भजन, गीत, लोक गीत समय-समय पर मैं उनके निर्देशन में गाती रही।
एक सुखद व लंबी संगीत यात्रा के बाद अब मैं जीवन के एक ऐसे पड़ाव पर हूँ जहाँ कोई बन्धन, बाधा या दुविधा नहीं है बस मेरा संगीत प्रेम है जिसे मैं आज भी जीवित रखे हुए हूँ। एक महान संगीतज्ञ विनायक हेगडे जी का मेरे जीवन में कुछ समय पहले आना हुआ, कुछ साथी भी मिल गये। बस फिर क्या था। वह कहावत हम जी रहे हैं—ख़ूब जमेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो। हम ६-७ हैं दो नहीं, हमारे गुरु और साथ हैं माँ सरस्वती। विनायक जी दक्षिण भारत से हैं तथा अपने बाल्यावस्था से संगीत से भरे वातावरण में पले बड़े हैं। वे बहुत छोटे थे तब उनकी माता उन्हें व उनके भाई-बहनों को शास्त्रीय संगीत सुनाती थीं। यहाँ कैनेडा में वे अनेक बड़ों, बच्चों को हिन्दी तथा कन्नड़ संगीत सिखाते हैं। भारत से संगीतज्ञों को बुलाते हैं और भारतीय संगीत के प्रचार-प्रसार व शिक्षा के लिये अथक प्रयास में निरतंर लगे हैं। मेरे जीवन के अंतिम पड़ाव तक मेरी संगीत यात्रा चलती रहेगी, मैंने कभी नहीं सोचा था। यही नहीं, सचिन जी तथा विनायक जी मेरी संगीत यात्रा को रागों से भरेंगे यह तो स्वप्न में भी नहीं सोचा था। मैं संगीत के सभी पक्षों को बचपन से देखती-सुनती रही। जैसे-जैसे अवसर मिला सीखा, गाया, दुख-सुख के क्षणों में संगीत मन में भरने, आत्म सात करने की चेष्टा करती रही। किसी प्रकार की विशेषज्ञ नहीं हूँ, ना ही वह मेरा ध्येय था। मेरी इच्छा थी कि मैं कुछ गा सकूँ, संगीत का आनंद ले सकूँ और अपने लिये अंत तक गाती रहूँ गुनगुनाती रहूँ!!!