खाड़ी देशों में लघुकथा की स्थिति

15-09-2024

खाड़ी देशों में लघुकथा की स्थिति

डॉ. नितीन उपाध्ये (अंक: 261, सितम्बर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

मानव मन का दर्पण होती है कहानियाँ, जिसमें वह अपना प्रतिबिम्ब देखने के साथ-साथ दूसरों के जीवन को भी जीने का प्रयास करता है। कहानियों का महत्त्व तब और भी बढ़ जाता है, जब व्यक्ति अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों से दूर जाता है। आप्रवासी भारतीयों का एक बड़ा समूह खाड़ी देशों में रहता है और दुबई इन सबका केंद्र बिंदु है, यह कहना भी ग़लत नहीं होगा। हिंदी साहित्य की लगभग हर विधा में यहाँ रचनाएँ रची जा रही है। इन साहित्यकारों की अग्रिम पंक्ति में यू.ए.ई. की डॉ. आरती ‘लोकेश’ का नाम बड़े ही आदर से लिया जाता है। डॉ. आरती ‘लोकेश’ दो दशकों से दुबई में निवास कर रही हैं। आप यू.ए.ई. के विद्यालय में वरिष्ठ मुख्याध्यापिका होने के अतिरिक्त शोध-निर्देशिका भी हैं। अंग्रेज़ी-हिन्दी दोनों विषयों में स्नातकोत्तर होने के साथ ही हिन्दी में गोल्ड मैडलिस्ट हैं। ‘अनन्य यू.ए.ई.’ पत्रिका की मुख्य संपादक हैं तथा अमेरिका, यू.ए.ई. व भारत की कई पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं तथा शोध जरनल की संपादक, सह-संपादक तथा उप संपादक भी हैं। इनके 4 उपन्यास, 4 कविता-संग्रह, 4 कहानी-संग्रह, 4 कथेतर गद्य, यू.ए.ई. के बालकों व वयस्कों की रचनाओं के संकलन की 5 संपादित मिलाकर 21 पुस्तकें प्रकाशित व 5 अन्य प्रकाशनाधीन हैं। इनके साहित्य पर पंजाब, हरियाणा, ओड़िसा तथा यूक्रेन के विश्वविद्यालय में विद्यार्थी शोध कर रहे हैं तथा अनेक पुस्तकों पर अनुवाद किया जा रहा है। इनके साहित्य पर दो प्रवक्ताओं, डॉ. उर्मिला व डॉ. पूनम के सम्पादन में पुस्तक “डॉ. आरती ‘लोकेश’ की साहित्य सुरभि” प्रकाशित हो चुकी है। 

इन्हें भारत व मॉरीशस सरकार द्वारा सर्वप्रतिष्ठित सम्मान ‘आप्रवासी हिन्दी साहित्य सृजन सम्मान’ $2000 राशि सहित, ‘काव्य विभूषण’, ‘महाकवि प्रो. हरिशंकर आदेश साहित्य सम्मान’, ‘रंग राची सम्मान’, ‘शब्द शिल्पी भूषण सम्मान’, ‘प्रज्ञा सम्मान', ‘निर्मला स्मृति हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान’, ‘प्रवासी भारतीय समरस श्री साहित्य सम्मान’, ‘शिक्षा रत्न’ आदि से नवाज़ा गया है। 

खाड़ी देशों में लघुकथा की स्थिति पर इनके विचारों को जाने के लिए इनसे डॉ. नितीन उपाध्ये ने बातचीत की है। 

 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि कहानी को हम कितने भागों में बाँट सकते हैं, और उनमें लघुकथा का महत्त्व कितना है? 

डॉ. आरती:

डॉ. नितीन, कथा साहित्य का संसार बहुत विशाल है। कहानी, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा आदि इसके अभिन्न अंग हैं। कथा तत्त्व भरपूर होते हुए भी संस्मरण, रेखाचित्र व जीवनी आदि कथेतर साहित्य का भाग माने जाते हैं। इस दृष्टि से विश्लेषण करने पर कथा और कथेतर गद्य में मुख्य अंतर कल्पना और यथार्थ का प्रतीत होता है। जिस प्रकार कथेतर में भी ‘यथा नाम’ कथा सम्मिलित है उसी प्रकार कहानी-युक्त साहित्य में भी यथार्थ निहित होता है। इस दृष्टि से लघुकथा कथा साहित्य के अंतर्गत ही आती है। यथार्थ की भूमि से उठाई हुई और कल्पना की मिट्टी में दबाई हुई ‘इंस्टैंट कथा’ ही वास्तव में लघुकथा है। आज-कल के व्यस्त जीवन की भागमभाग में अपने साहित्य-प्रेम से निर्वाह करते पाठकों को ध्यान में रखते हुए लघुकथा का महत्त्व सर्वोपरि है। किन्तु ऐसा कहने से कहानी, उपन्यास आदि का महत्त्व कम नहीं हो जाता क्योंकि ‘टू मिनट नूडल्स’ से कभी-कभार उदर शान्ति करने वालों को भी घर की रसोई में धीमी आँच पर पकी खीर व पूड़ी का स्वाद लेकर अधिक आनंद और पूर्ति का अनुभव होता है। 

डॉ. नितीन

डॉ. आरती! लघुकथा और लघु कथा में क्या कोई अंतर है? 

डॉ. आरती:

बहुत अच्छा प्रश्न है डॉ. नितीन! लघुकथा की तुलना में लघु कथा एक प्राचीन विधा है जिसे हम छोटी कहानी कह सकते हैं। लघुकथा का स्वरूप इससे तनिक भिन्न है। यह आकार में छोटी होते हुए भी पाठक की कल्पना को उस बिंदु तक ले जाने में सक्षम होती है जिसका उल्लेख इसमें किया भी न गया हो। एक क्षणिक घटना होते हुए भी यह इस घटना के बहुत पहले और बहुत बाद की घटनाओं तक पाठकों का ध्यान आकर्षित की सामर्थ्य रखती है। कहने का तात्पर्य यह है कि लघुकथा की मारक शक्ति उसे लघु कथा से अलग बनाती है। इसके अतिरिक्त एक अच्छी लघुकथा को 700 शब्दों से अधिक नहीं होना चाहिए। लघु कथा में इस प्रकार की बाध्यताएँ व सीमाएँ बहुत कम हैं और इसी कारण इसकी शिरोरेखा खुली है और लघुकथा की बंद। 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! आज हम देख रहे है कि लघुकथा लिखने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसकी शुरूआत कब और कैसे हुई? 

डॉ. आरती:

लघुकथा एक स्वतंत्र व आधुनिक विधा है और समय के साथ संगत करती हुई, आवश्यकतानुरूप विकसित हुई है। नवीन विधा होने के कारण इसकी शुरूआत का ठीक-ठीक अंदाज़ा लगाना तो दुष्कर कार्य है। यह तो साहित्य के इतिहासकार ही ठोस रूप से बता पाएँगे। यह अवश्य कहा जा सकता है कि माधवराव सप्रे की लघुकथा ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ के प्रभाव और प्रसिद्धि के बाद लेखकों का ध्यान इस ओर गया। कम समय में, कम शब्दों में अपनी बात को ज़ोरदार और असरदार तरीक़े से कहने का यह उत्तम साधन है। यही इसके प्रचलन का कारण भी है। 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! लघुकथा के नाम पर आजकल सोशल मीडिया में एक प्रकार की बाढ़ आई हुई है, अधिकतर लेखक या कहूँ कि लेखिकाएँ रोज़ाना के सीधे-सादे वार्तालाप को ही लघुकथा के रूप में लिख रहे है? इसके बारे में आपका क्या विचार है? 

डॉ. आरती:

आप सही कह रहे हैं डॉ. नितीन! यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे-जिस प्रकार के परिधान का फ़ैशन होता है हम वही पहनने की कोशिश करते हैं। आधुनिकता की होड़ में हम यह भूल जाते हैं कि हम पर क्या फबता है या हमारा शरीर किस प्रकार के परिधान के अनुरूप है। कुछ यही लघुकथा के साथ भी हो रहा है। इसकी बढ़ती लोकप्रियता से हर कोई इसमें हाथ आज़मा लेना चाह रहा है फिर इस बात पर लेखकों का क़तई ध्यान नहीं जाता कि वे लघुकथा के शिल्प को समझे भी हैं या नहीं। उससे अधिक हानि इस बात से भी हो रही है कि नए लेखक ऐसी लघुकथाओं का अवलोकन कर इस क्षेत्र में ‘नीम-हकीम’ जानकारी के साथ घुसपैठ कर रहे हैं। लघुकथा लिखना ऐसे ही है जैसे कविता में ‘हाइकु’ लेखन। 17 अक्षर लिख देने भर से हाइकु नहीं हो जाता और कहानी को कम शब्दों में समेट देने से वह लघुकथा नहीं हो जाती। 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! लघुकथा के नियमों जैसे लेखकीय प्रवेश, शब्द सीमा, कालावधि दोष आदि के बारे में कई भ्रांतियाँ है, इसे आप कैसे देखती हैं? 

डॉ. आरती:

जी, डॉ. नितीन! बहुत अच्छा प्रश्न है। लघुकथाकार को एक संवाददाता के समान निर्लिप्त, निर्पेक्ष और स्थितप्रज्ञ भाव से कथा को सामने रखना है अतः लेखकीय प्रवेश वर्जित माना गया है क्योंकि यह पक्षधरता का द्योतक है। इसकी शब्द-सीमा के विषय में मतभेद हैं। कोई विद्वान इसे अधिकतम 350-400 तक रखने के ही पक्षधर हैं तो अन्य विद्वान तीन अंकों तक अर्थात् 1000 से कम शब्दों तक भी लघुकथा मान रहे हैं। निम्न सीमा का तो कहीं उल्लेख ही नहीं है। कालावधि दोष तब माना जाता है जब एक घटना समाप्त होकर उससे जुड़ी हुई अन्य घटना दूसरे काल की हो। यही घटना यदि पूर्वदीप्ति की भाँति प्रकट हो तब कालावधि की त्रुटि नहीं मानी जाती परन्तु ऐसे में लेखकीय प्रवेश के दोष से मुक्त होना कठिन हो जाता है। इन सभी घटकों का ध्यान रखते हुए लघुकथा लिखनी होती है, जो साधना से ही सम्भव है। 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! लघुकथाओं पर भारत में बहुत कार्य हो रहा है। विदेश में ख़ासतौर पर खाड़ी देशों में लघुकथा लेखन की क्या स्थिति है? 

डॉ. आरती:

खाड़ी देशों में भी लघुकथा लेखन ज़ोर पकड़ रहा है। खाड़ी देशों में इच्छुक लघुकथाकारों के लिए हमने कई कार्यशालाएँ भी आयोजित की हैं। अगर आपको स्मरण हो तो मेरे संपादन में ही ‘अनन्य यू.ए.ई.’ पत्रिका का मार्च-अप्रैल 2023 का अंक लघुकथा विशेषांक निकला था जिसमें यू.ए.ई. के 12 रचनाकारों की लघुकथाओं को स्थान मिला था। मुझे यह बताते हुए ख़ुशी हो रही है कि आप स्वयं ही यू.ए.ई. के श्रेष्ठ लघुकथाकार हैं। डॉ. नितीन, आपने लघुकथा की तकनीक को बख़ूबी पकड़ा है। आपकी प्रकाशनाधीन लघुकथा की पुस्तक का हमें इंतज़ार है। ‘दूर्वादल’ नाम से मेरी भी एक पुस्तक लघुकथा पर गत वर्ष ही प्रकाशित हुई है। 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! आम तौर पर यह देखा गया है कि प्रवासी साहित्यकारों द्वारा लघुकथा में स्थानीय समस्याओं, चुनौतियों और अच्छी बातों का समावेश कम किया जाता है। इस बारे में आपकी क्या राय है? 

डॉ. आरती:

नितीन जी, प्रवासी साहित्य की अपनी ही ख़ूबियाँ और ख़ामियाँ हैं। प्रवासी रचनाकार दोहरी संस्कृति से प्रभावित और प्रचालित रहते हैं। उनका परिंदा मन उन्हें अपनी धरती की ओर खींचता है जिसे वे अपने लेखन से क्षतिपूर्ति की तरह व्यवहृत करते हैं तो प्रवास-भूमि कभी उपेक्षित-सी हो जाती है। प्रवासी रचनाकारों को उस देश की संस्कृति, विशिष्टताओं, स्थानीय परंपराओं और संस्कारों को अपने लेखन द्वारा समाज के बीच स्थापित करना ही चाहिए तभी तो वे उस माटी का ऋण भी अदा कर पाएँगे। इसके अतिरिक्त किसी-किसी देश विशेष में ऐसा कानून-विरोधी माना जाने के कारण भी रचनाकार उस भूमि की बात करने से कतराते हैं जो कि एक प्रकार से उचित भी है। 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! प्रवासी लेखकों को लघुकथा लेखन के लिए प्रोत्साहित करने के लिए किस प्रकार की गतिविधियाँ होनी चाहिए? क्या वे हो रही हैं? 

डॉ. आरती:

ऐसी गतिविधियाँ बड़े पैमाने पर हो रही हैं। कार्यशालाओं का आयोजन हो रहा है। लघुकथाओं पर समीक्षाएँ भी इस शुभ कार्य में सहायक होती हैं, वे भी हो रही हैं। प्रवासी लघुकथाओं को पुस्तकों में समेटने पर भी ज़ोर-शोर से कार्य हो रहा है। मैं स्वयं भी ऐसे कई अभियानों से जुड़ी हुई हूँ। लघुकथा प्रस्तुति, वाचन, स्वरूप पर चर्चा, समीक्षा आदि कई कार्यक्रमों का हिस्सा रही हूँ। इतना सब होने के बाद भी कहीं ऐसा लगता है कि तुरत-फुरत लेखन का आदी आज का लेखक इसके स्वरूप आदि पर विचार ही नहीं करना चाहता। लघुकथा सीखने के साथ ही धैर्य चाहती है। यही इसके प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम का पहला पाठ है। इसे अर्जुन और एकलव्य दोनों की भूमिका में सीखना पड़ता है। 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! लघुकथा के बारे में जितनी ग़लतफ़हमियाँ लेखकों में हैं उतनी ही पाठकों में भी है। पाठकों का और विशेष रूप से विदेशों में बसने वाले हिंदीभाषियों में इसका रुझान बढ़े, इसके लिए क्या किया जाना चाहिए? 

डॉ. आरती:

नितीन जी, पाठक तो वही पढ़ेगा जो लेखक का लिखा हुआ है, तो गलतफ़हमियाँ तो होंगी ही। पाठक यह जान ही नहीं पाएगा कि वह कोई क़िस्सा, बतकही पढ़ रहा है कि लघुकथा। वास्तव में पाठकों के बढ़ते रुझान के कारण ही लघुकथा इतनी शीघ्रता से लोकप्रिय हुई है। लम्बी-लम्बी कहानियाँ पढ़ने का समय ही कहाँ है किसी के पास। विदेश में रह रहे प्रवासी अपने आस-पास घट रही छोटी-छोटी घटनाओं को देखें, समझें, उसके कारण-परिणाम-सुधार-सुझाव पर चिंतन करें, साहित्यिक दृष्टि और मूल्यों से उसका आकलन करें और उसमें व्याप्त छटपटाहट व बेचैनी को अभिव्यक्त करें तो लघुकथा विधा और परवान चढ़ सकती है। 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! प्रवासी लघुकथाकारों द्वारा किन विषयों पर कार्य करने की आवश्यकता है? 

डॉ. आरती:

प्रवासी लघुकथाकारों को अपने तत्कालीन स्थान से संबंधी विषयों को चुनना चाहिए। वैसे भी, यथार्थ से कल्पना तक की शाब्दिक यात्रा ही लघुकथा है। अतः अपने पास की ज़मीन से उठाकर उसे पन्नों पर स्याही से सँजो लेना चाहिए। शेष, लघुकथा किसी भी विषय पर लिखी जा सकती है, वह किसी विषय की सीमा-रेखा में नहीं बँधी है। 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! लघुकथा में अधिकतर व्यवस्था पर चोट करने पर ज़ोर दिया जाता है, ऐसे में विशुद्ध हास्य के प्रयोग को आप किस रूप में देखती है? 

डॉ. आरती:

विशुद्ध हास्य मनोरंजन का साधन मात्र है। साहित्य में हास्य सदा ही व्यंग्य का संगी बनकर अवतरित हुआ है। विडम्बना, विरोधाभास और व्यंग्यात्मक परिस्थितियाँ अक्सर हास्य की जननी होती हैं। झिंझोड़कर रख देना लघुकथा का उद्देश्य भी है और कारक भी। ऐसे में मात्र मन बहलाव के लिए लिखी गई लघुकथा चुटकुले से अधिक प्रभाव उत्पन्न न कर पाएगी और यह प्रभाव भी क्षणभंगुर ही रह जाएगा। 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! लघुकथा में से लेखक अपने आप को कैसे अलग रख सकता है? 

डॉ. आरती:

लघुकथा लेखक को स्वयं को लघुकथा की घटना की स्थिति से बाहर निकलना होगा। उसे एक अन्य पुरुष व असम्बद्ध की भाँति उसे परखना होगा। लघुकथा में अगर दो पात्र हैं तो दोनों के चोलों को बारी-बारी धारण करना होगा, फिर तटस्थ रहकर केवल कथावाचक की भूमिका निभानी होगी। कोई परामर्श देना, नीति‌ज्ञान देना, भाव-विस्तार करना; यह लघुकथाकार का काम नहीं है। लघुकथा का कलेवर ऐसा रचा गया हो कि बिना कहे ही पाठक वहाँ पहुँच जाए जहाँ इस लघुकथा की रचना हुई है। अनकहे समाधान को, अव्यक्त तंज़ को, अपरिचित विद्रूपता को वह बिना शब्दों के समझ जाए, यही लघुकथा की वास्तविक उपलब्धि है। 

डॉ. नितीन: 

डॉ. आरती! लघुकथा के अंत में एक पंच लाइन होना चाहिए इस बात से आप कितना सहमत है, क्योंकि कई लघुकथाओं को पहली पंक्ति को पढ़कर ही अंतिम पंक्ति का आभास हो जाता है। 

डॉ. आरती:

लघुकथा ज्ञात से अज्ञात की ओर बहाकर ले जाती है और कुछ अनचीह्ने तत्त्वों और प्रश्नों के साथ पाठक को मथने के लिए छोड़ जाती है। आप उसे चाहे पंच-लाइन कह लें या कुछ और, अंत ऐसा होना चाहिए जो पाठक को सोचने पर बाध्य कर दे। 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! लघुकथाकारों द्वारा अपनी लघुकथाओं को सार्वभौमिक करने और सर्वकालिक बनाने के लिए क्या करना चाहिए? 

डॉ. आरती:

लेखक को इन सबकी चिंता न कर के अपने लेखक में सजगता लानी होगी। लघुकथा यदि पाठक के सामने एक सामाजिक चित्र उपस्थित करती है जिसमें पारिवारिक इकाई से लेकर प्रशासनिक विषयों की न्यायसंगत पड़ताल हुई हो और भावनात्मक व मानविक पहलू उजागर हुए हों तो ऐसी रचनाएँ मानव मात्र को सम्बोधित होने के नाते स्वतः ही सार्वभौमिक हो जाएँगी। लघुकथाकार को मानवहित को दृष्टि-मध्य रख, समसामयिक ज्वलंत विषयों पर तीक्ष्ण क़लम बाण चलाने होंगे। लघुकथा सर्वकालिक है कि नहीं यह तो आने वाला समय ही तय करेगा। आज के समय में कोई पंडित-विद्वान, आलोचक-समीक्षक ऐसा उद्घोष न कर पाएगा। 

डॉ. नितीन:

डॉ. आरती! लघुकथा लिखने के इच्छुक लेखकों को आप किन लघुकथाकार की रचनाएँ पढ़ने की सलाह देंगी ताकि वे अपनी लघुकथा में सुधार ला सकें? 

डॉ. आरती:

लघुकथा लिखने के लिए सर्वप्रथम तो अनेक अच्छी लघुकथाएँ पढ़नी चाहिए जो कि लघुकथा के मानदंडों पर खरी उतरती हों। लघुकथा के मानक व नियमों का ज्ञान भी अनिवार्य है। यद्यपि लघुकथा एक नई विधा है तथापि बहुत से लेखक इसमें बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। आचार्य ओम नीरव, कांता राय, बलराम अग्रवाल, ज्योत्स्ना कपिल, नमिता सिंह, संतोष सुपेकर, यशोधरा भटनागर, राम मूरत राही, डॉ. इंदु गुप्ता, डॉ. निधि अग्रवाल, अलका प्रमोद, नीलम झा, वीणा पाठक, शकुंतला मित्तल आदि कई नामी लघुकथाकार हैं। यू.ए.ई. से आपकी यानी डॉ. नितीन उपाध्ये, डॉ. मंजु सिंह, की लघुकथाएँ बेमिसाल हैं। प्रवासी भारतीयों में कनाडा से शैलजा सक्सेना, यू.के. से शैल अग्रवाल, सिंगापोर से चित्रा गुप्ता, अमेरिका से दुर्गा सिन्हा उदार, ऑस्ट्रेलिया से हरिहर झा आदि को पढ़कर भी लघुकथा की संरचना को समझा जा सकता है। 

डॉ. नितीन:

बहुत-बहुत धन्यवाद डॉ. आरती! आपके द्वारा लघुकथा और इसकी स्थिति खाड़ी देशों में क्या है इस पर विस्तृत, तार्किक और सारगर्भित प्रकाश डाला है, जिससे पाठकों और लघुकथा लेखकों को निश्चित ही लाभ होगा। 

डॉ. आरती:

लघुकथा पर इतने गंभीर चिंतन व विमर्श को रखने के लिए लघुकथा जगत आपका सदैव आभारी रहेगा। धन्यवाद, डॉ. नितीन! 

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