महासमर
डॉ. नितीन उपाध्ये(द्रौपदी कृष्ण संवाद)
माधव तुमसे कुछ कहना है
यह दर्द नहीं अब सहना है
उठते हैं मन में ज्वार कई
उर पर लादे हूँ भार कई
तुम तो हस्तिनापुर जाते हो
मेरे मन को दहलाते हो
मैं दीपशिखा सी जलती हूँ
कह दो तो साथ में चलती हूँ
कौरव तो रार ही ठानेंगे
क्या अपने वचनों को मानेंगे
हम समझौते की बात करें
फिर भी वो घात पे घात करें
कड़वे बीजों से मीठे फल
मदिरालय जाके गंगाजल
ऐसी कुछ आस नहीं रखना
ना कड़वा फल फिर से चखना
उग सकता सूरज पश्चिम से
मीठे फल क्या मिलेंगे नीम से
यह कौरव तो न बदलेंगे
ना पत्थर, मोम से पिघलेंगे
प्रयास व्यर्थ होंगे सारे
रण के बजने दो नक्कारे
होता है युद्ध हो जाने दो
मृत्यु को भैरवी गाने दो
मैं जानती हूँ तुमको जितना
क्या जानेगा कोई इतना
तुम नहीं चाहते सर्वनाश
रोकना चाहते हो मृत्युपाश
तुम नटखट हो तुम छलिया हो
मन को हरते मन-रसिया हो
हो कर्ण, दुःशासन दुर्योधन
तुम वश में कर लोगे मोहन
ना रखना मुरली अधरों पर
करते सम्मोहित इसके स्वर
जो एक बार मुस्काओगे
सब राजपाट ले आओगे
तुममें है ऐसा वशीकरण
सब भूलें अपना आचरण
बस एक वचन देते जाओ
सौगंध मेरे सर की खाओ
जब उस सभा में प्रवेश हो
तुम्हें ध्यान खुले मेरे केश हो
मैं रोई थी चिल्लाई थी
सबसे गुहार लगाई थी
उस सभा में कोई मर्द न था
किसी ने जाना मेरा दर्द न था
क्रोधाग्नि अब भी धधक रही
मेरा क्रंदन अब तक है वही
इक इक आँसू के बदले में
एक एक कौरव का शीश कटे
अब काम न आएँगे झाँसे
शकुनि की चौसर के पांसे
सम्मुख सबके वो क्षण होंगे
जब पूरे भीम के प्रण होंगे
कहना उस सभा के वीरों से
बचना अर्जुन के तीरों से
वनवास के पहले ही दिन से
अर्जुन का तूणीर भरा जिनसे
मैंने जिह्वा से धार चढ़ा
एक एक तीर को है गढ़ा
न व्यर्थ जाए वो तीर तीक्ष्ण
कृष्णा को दो ये वचन कृष्ण
जब पाप बने मानव के कृत्य
हो महाकाल का तांडव नृत्य
सभ्यता और संस्कृति की दीक्षा
स्त्री की मर्यादा की रक्षा
जब जब धर्म की हानि हो
जग में सुख शान्ति लानी हो
तुम विराट रूप को धर लेना
संस्कृति का रक्षण कर लेना
अपनी बहन को दो ये वर
माँगूँ मैं तुमसे महासमर