हे द्रौपदी! 

01-09-2024

हे द्रौपदी! 

संजय एम. तराणेकर (अंक: 260, सितम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)


 
हे द्रौपदी! 
तुम्हें तो कोई छू भी नहीं सकता। 
फिर भी तुम्हें डर है, 
उन हैवानों का, उन नर पिशाचों का। 
जिनसे बेटियों की आबरू, 
अंदर तक काँप गई है। 
 
आपने कहा “अब बहुत हो चुका।”
क्या, इन दरिंदों से लड़ पाओगी? 
न्याय के झंडे को ऊँचा कर पाओगी? 
चिंता बड़ी गहरी है। अफ़सोस . . . 
लेकिन उस पर कोई प्रहरी नहीं है। 
 
डर समझ में आता है। 
मुझे तो हर बार, 
एक सपोला नज़र आता है। 
जो झुंड बनाकर आता है, 
कोमल शरीर का ज़र्रा-ज़र्रा
अंदर तक काँप जाता है? 
 
बस, कुचलना है उसका फन, 
आत्मा भी पूछ हिलाते फिरेगी। 
इन सपोलों में “डर” बिठाना है, 
वासना की आग को 
हमेशा के लिए मिटाना है। 
 
हे द्रौपदी! 
बस एक बार मन में ठान लेना, 
फिर कभी कोई सपोला, 
तुम्हें छू भी नहीं सकता। 

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