बेरोज़गार
अनिल मिश्रा ’प्रहरी’अश्रु भरे वह नैन लिए रह जाता।
बिखरे बाल, घिसी दो चप्पल
तपती राहों पर अविरत चल,
जग के पहले ही वह जागे
दौड़ - धूप दफ़्तर के आगे।
बेकारी का तीव्र दशन सह जाता।
अश्रु भरे वह नैन लिए रह जाता।
बोझ बनी अब सारी शिक्षा
काम माँगता है न भिक्षा,
फुटपाथों पर रात गुज़ारा
दर - दर भटका बन बंजारा ।
अरमानों का सागर यूँ बह जाता
अश्रु भरे वह नैन लिए रह जाता।
ढूँढ - ढूँढकर नौकरी हारा
बेकारी ने तिल-तिल मारा,
वस्त्र घिसे अब हुए पुराने
दुनिया रह- रह मारे ताने।
उसका कृष -तन दर्द कई कह जाता
अश्रु भरे वह नैन लिए रह जाता।